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________________ भावार्थ इसके पश्चात् श्रमणोपासक को देशावकाशिक व्रत के पाँच अतिचार जानने चाहिएं, परन्तु आचरण न करने चाहिएं। वे इस प्रकार हैं—(१) आनयन प्रयोग मर्यादा भंग करने वाले संदेशों द्वारा बाहर से वस्तु मँगाना। (2) प्रेष्य प्रयोग बाहर से वस्तु मँगाने के लिए किसी व्यक्ति को भेजना। (3) शब्दानुपात शाब्दिक संकेत द्वारा काम कराना। (4) रूपानुपात–आँख आदि के इशारे से काम कराना। (5) बहिःपुद्गलप्रक्षेप बाहर कोई वस्तु फेंककर काम कराना। टीका प्रस्तुत व्रत का नाम है—देशावकाशिक व्रत, इसका अर्थ है—अमुक निश्चित समय विशेष के लिए क्षेत्र की मर्यादा करना और इससे बाहर किसी प्रकार की सांसारिक प्रवृत्ति न करना | यह व्रत छठे दिग्व्रत का संक्षेप है, दिग्व्रत में दिशा सम्बन्धी मर्यादा की जाती है, किन्तु यह मर्यादा यावज्जीवन या लम्बे समय के लिए होती है और प्रस्तुत मर्यादा साधना के रूप में दिन-रात के या न्यूनाधिक समय के लिए की जाती है। भोगोपभोग-परिमाण आदि अन्य व्रतों का प्रतिदिन अमुक काल तक किया जाने वाला संक्षेप भी इसी व्रत में सम्मिलित है। टीकाकार के निम्नलिखित शब्द हैं-.. 'देसावगासियस' त्ति दिग्व्रतगृहीतदिक्परिमाणस्यैकदेशो देशस्तस्मिन्नवकाशोगमनादिचेष्टास्थानं देशावकाशस्तेन निर्वृत्तं देशावकाशिकं पूर्वगृहीतदिग्व्रत संक्षेपरूपं सर्वव्रतसंक्षेपरूपं चेति / " 1. आनयन प्रयोग मर्यादित क्षेत्र के अन्दर उपयोग के लिए मर्यादा क्षेत्र से बाहर के पदार्थों को दूसरे से मंगाना। 2. प्रेष्य प्रयोग—मर्यादा किए हुए क्षेत्र से बाहर के कार्यों का संपादन करने के लिए नौकर आदि भेजना। 3. शब्दानुपात–नियत क्षेत्र से बाहर का कार्य आने पर छींककर, खाँसकर अथवा कोई शब्द करके पड़ौसी आदि को इशारा करके कार्य कराना। 4. रूपानुपात–नियत क्षेत्र से बाहर का काम करने के लिए दूसरे को हाथ आदि का इशारा करना। 5. बहिः पुद्गलप्रक्षेप–कंकड़-पत्थर आदि फेंककर दूसरे को संकेत करना / जैन परंपरा में यह आवश्यक माना गया है कि साधक समय-समय पर अपनी प्रवृत्तियों को मर्यादित करने का अभ्यास करता रहे, इससे जीवन में अनुशासन तथा दृढ़ता आती है, प्रस्तुत व्रत इसी अभ्यास का प्रतिपादन करता है। समय विशेष के लिए की गई समस्त मर्यादाएं इसके अन्तर्गत हैं। ___पौषध व्रत के पाँच अतिचारमूलम् तयाणंतरं च णं पोसहोववासस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा, तं जहा—अप्पडिलेहियदुष्पडिलेहिय सिज्जासंथारे, अप्पमज्जियदुप्पमज्जिय श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 134 | आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन श्रा उपासक
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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