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________________ छाया—तदनन्तरं च खलु अनर्थदण्डविरमणस्य श्रमणोपासकेन पंचातिचारा ज्ञातव्या न समाचरितव्याः, तद्यथा कन्दर्पः, कौत्कुच्यं, मौखऱ्या, संयुक्ताधिकरणम्, उपभोगपरिभोगातिरेकः। शब्दार्थ तयाणंतरं च णं—इसके अनन्तर, समणोवासएणं श्रमणोपासक को, अणट्ठदण्डवेरमणस्स—अनर्थदण्ड विरमणव्रत के, पंच अइयारा—पाँच अतिचार, जाणियव्वा—जानने चाहिएं, न समायरियव्वा—परन्तु आचरण न करने चाहिएं, तं जहा–वे इस प्रकार हैं—कंदप्पे कन्दर्प, कुक्कुइए—कौत्कुच्य, मोहरिए—मौखर्य, संजुत्ताहिगरणे संयुक्ताधिकरण, उवभोगपरिभोगाइरित्ते—उपभोग परिभोगातिरेक / भावार्थ इसके अनन्तर अनर्थदण्ड विरमण व्रत के पाँच अतिचार जानने चाहिएं, परन्तु आचरण न करने चाहिएं। वे इस प्रकार हैं 1. कन्दर्प—कामोत्तेजक बातें या चेष्टाएँ करना। (2) कौत्कुच्य—भांडों की तरह विकृत चेष्टाएँ करना। 3. मौखर्य—झूठी शेखी मारना अथवा इधर-उधर की व्यर्थ बातें करना। 4. संयुक्ताधिकरण—हथियारों अथवा अन्य हिंसक साधनों को एकत्रित करना। 5. उपभोग-परिभोगातिरेक उपभोग-परिभोग को निरर्थक बढ़ाना। टीका प्रस्तुत सूत्र में अनर्थदण्ड विरमण व्रत के अतिचार बताए गए हैं। अनर्थदण्ड का अर्थ है—ऐसे कार्य जिनसे अपना कोई स्वार्थ सिद्ध नहीं होता और दूसरे को हानि पहुँचती है, जिन कार्यों से व्यर्थ ही आत्मा मलिन होता है वे भी अनर्थदण्ड में आते हैं। (1) कन्दप्पे—(कन्दर्पः) कन्दर्प का अर्थ है काम वासना / व्यर्थ ही काम वासना सम्बन्धी बातें अथवा चेष्टाएं करते रहना कन्दर्प नाम का अतिचार है। गन्दी गालियां बकना, शृंगारिक चेष्टाएं करना, अश्लील साहित्य को पढ़ना तथा अन्य कामोत्तेजक बातें करना भी इसमें सम्मिलित है। यह अइचार प्रमादाचरित कोटि में आता है, क्योंकि यह एक प्रकार की मानसिक, वाचिक अथवा कायिक शिथिलता है। (2) कुक्कुइए (कौत्कुच्यम्) भांडों के समान मुंह, नाक, हाथ आदि की कुचेष्टाएं करना, यह भी प्रमादाचरित का अतिचार है। यदि चेष्टाएँ बुरी भावना के साथ की जायें तो इसका सम्बन्ध अपध्यानाचरित के साथ भी हो जाता है। (3) मोहरिए—(मौखर्यम्) मुखर का अर्थ है—बिना विचारे बढ़-चढ़ कर बातें करने वाला। प्रायः धृष्टता या अहंकार से प्रेरित होकर व्यक्ति ऐसा करता है। इसमें मिथ्या प्रदर्शन की भावना उग्र होती है। यह अतिचार पाप कर्मोपदेश से सम्बन्ध रखता है। . (4) संजुत्ताहिगरणे (संयुक्ताधिकरणम्) अधिकरण का अर्थ है फरसा, कुल्हाड़ी, मूसल आदि हिंसा के उपकरण, इन उपकरणों को संग्रह करके रखना, जिसमें आवश्यकता पड़ने पर तुरन्त उपयोग किया जा सके, संयुक्ताधिकरण है। इस अतिचार से हिंसा को प्रोत्साहन मिलता है। श्री उपासक दश / / 126 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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