________________ 'असई पोसणय' त्ति-दास्यः पोषणं तद्भाटी ग्रहणाय, अनेन च कुक्वट मार्जारादिक्षुद्रजीव पोषणमप्याक्षिप्तं दृश्यमिति / ' आचार्य हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र में उपरोक्त कर्मादानों का निरूपण नीचे लिखे शब्दों में किया है अङ्गार-वन-शकट-भाटक-स्फोट जीविका | दन्त लाक्षा रस-केश-विष वाणिज्यकानि च || .. यन्त्र-पीडा-निर्लाञ्छन-मसतीपोषणं तथा | दव-दान-सरः शोष, इति पञ्चदश त्यजेत् || अङ्गार भ्राष्ट्र करणं कुम्भाय स्वर्णकारिता | ठठारत्वेष्टका पाकाविति ह्यङ्गार जीविका || छन्नाछिन्नवनपत्र-प्रसून फल विक्रयः | कणानां दलनात् पेषाद् वृत्तिश्च वनजीविका || शकटानां-तडागानां घटनं खेटनं-तथा | विक्रयश्चेति शकट-जीविका परिकीर्तिता || शकटोक्षलुलायोष्ट्र खराश्वतर वाजिनाम् | भारस्य वाहनाद् वृत्तिर्भवेद् भाटक जीविका || सरः कूपादि खनन-शिला कुट्टन कर्मभिः | पृथिव्यारम्भ सम्भूतैर्जीवनं स्फोट जीविका || . . दन्त-केश-नखास्थित्वग्रम्णो ग्रहणमाकरे | त्रसाङ्गस्य वाणिज्यार्थं दन्तवाणिज्यमुच्यते // लाक्षामन-शिला-नीली धातकी-टङ्कणादिनः / विक्रयः पापसदनं लाक्षावाणिज्यमुच्यते // नवनीत-वसा-क्षौद्रे मद्यप्रभृति विक्रयः / द्विपाच्चतुष्पाद विक्रयो वाणिज्यं रसकेशयोः // : विषास्त्रहलयन्त्रायो हरितालादिवस्तुनः / विक्रयो जीवितघ्नस्य विषवाणिज्यमुच्यते || तिलेक्षु सर्षपैरण्ड जल यन्त्रादिपीडनम् / दल तैलस्य च कृतिर्यन्त्र पीड़ा प्रकीर्तिता || नासा वेधोऽङ्कनं मुष्कच्छेदनं पृष्ठ गालनम् | कर्ण कम्बल विच्छेदो निलाञ्छनमुदीरितम् || सारिका शुकमार्जार-श्वकुर्कुट कलापिनाम् | पोषो दास्याश्च वित्तार्थमसतीपोषणं विदुः || व्यसनात् पुन्यबुद्ध्या वा दवदानं भवेद्विधा | सरः शोषः सरः सिन्धुह्रदादेरम्बुसंप्लव || .. -योगशास्त्र-श्लोक 88-113 हिंसा प्रधान होने के कारण उपरोक्त कर्म श्रावक के लिए वर्जित हैं, इसी प्रकार के यन्त्र कर्म भी इनमें सम्मिलित कर लेने चाहिएं, वर्तमान युग में हिंसा एवं शोषण के नए-नए साधन एवं उपाय अपनाए जा रहे हैं, इन सब का इन्हीं में अन्तर्भाव हो जाता है, व्रतधारी को वर्तमान परिस्थिति के अनुसार विचार कर लेना चाहिए। __ अनर्थदण्ड व्रत के अतिचारमूलम् तयाणंतरं च णं अणट्ठदंडवेरमणस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा, तं जहा—कंदप्पे, कुक्कुइए, मोहरिए, संजुत्ताहिगरणे, उवभोगपरिभोगाइरित्ते // 52 // उपासकदशाङ्ग की वृत्ति। | श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 128 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन