________________ को स्वीकार किया' यथा समय व्रत अङ्गीकार करने की दृष्टि से समझना चाहिए। अतः इसमें किसी प्रकार की विसंगति नहीं है। उड्ढदिसि यहाँ दो प्रकार का पाठ मिलता है। ‘उड्ढदिसिपमाणाइक्कमे' तथा 'उड्ढदिसाइक्कमे' दोनों का भावार्थ एक ही है। यहाँ भी अतिक्रम यदि इच्छा पूर्वक किया जाता है. तो वह अनाचार है। ऐसी स्थिति में व्रत टूट जाता है। अतः अनाभोग अर्थात् असावधानी के कारण होने वाला अतिक्रम ही अतिचार के अन्तर्गत है। ___'खेत्तवुड्डि' इस पर टीकाकार के निम्नलिखित शब्द हैं। “एकतो योजनशतपरिमाणमभिगृहीतमन्यतो दश योजनान्यभिगृहीतानि, ततश्च यस्यां दिशि दश योजनानि तस्यां दिशि समुत्पन्ने कार्ये योजनशतमध्यादपनीयान्यानि दश योजनानि तत्रैव स्वबुध्या प्रक्षिपति, संवर्धयत्येकत इत्यर्थः। अयं चातिचारो व्रतसापेक्षत्वादवसेयः / " अर्थात् मान लीजिए किसी ने एक ओर सौ योजन तथा दूसरी ओर दस योजन की मर्यादा की है। उसे दस योजन वाली दिशा में आगे बढ़ने की आवश्यकता हुई तो उसने सौ योजन वाली दिशा में दस योजन कम करके उन्हें दस योजन वाली दिशा के साथ मिला दिया। इस प्रकार हेर-फेर करना 'खेत्तवुद्धि' है। ___ सइअन्तरद्धात्ति—इस पर वृत्तिकार के निम्नलिखित शब्द हैं—“स्मृत्यन्तर्धा स्मृत्यन्तर्धानं स्मृतिभ्रंशः। किं मया व्रतं गृहीतं, शतमर्यादया पञ्चाशन्मर्यादया वा, इत्येवमस्मरणे योजनशतमर्यादायामपि पञ्चाशतमतिक्रामतोऽयमतिचारोऽवसेय इति।" अर्थात् 'स्मृत्यन्तर्धान' का अर्थ हैं व्रत मर्यादा का विस्मृत होना। इस प्रकार का सन्देह होना कि मैंने सौ योजन की मर्यादा की है अथवा पचास योजन की, इस प्रकार विस्मृत होने पर पचास योजन का अतिक्रमण करने पर भी दोष लगता है। भले ही वास्तविक मर्यादा सौ योजन की हो। उपभोगपरिभोग व्रत के अतिचार___ मूलम् तयाणंतरं च णं उवभोग-परिभोगे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा—भोयणओ य, कम्मओ य, तत्थ णं भोयणओ समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा, तं जहा-सचित्ताहारे सचित्त-पडिबद्धाहारे, अप्पउलिओसहि भक्खणया, दुप्पउलि ओसहिभक्खणया' तुच्छोसहिभक्खणया। कम्मओ णं समणोवासएणं पणरस कम्मादाणाई जाणियव्वाइं, न समायरियव्वाइं, तं जहा—इंगाल-कम्मे, वण-कम्मे, साडी-कम्मे, भाडी-कम्मे, फोडी-कम्मे, दंत वाणिज्जे, लक्ख-वाणिज्जे, रस-वाणिज्जे, विस-वाणिज्जे, केस-वाणिज्जे, जंत-पीलण-कम्मे, निल्लंछण-कम्मे, दवग्गि-दावणया, सरदह-तलाय सोसणया, असई-जण-पोसणया // 51 // | श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 122 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन