________________ का अर्थ है-चतुष्पद अर्थात् पशु। यहाँ मनुष्य को भी सम्पत्ति में गिना गया है। उन दिनों दास-प्रथा प्रचलित थी और मनुष्य भी सम्पत्ति के रूप में रखे जाते थे। उनका क्रय-विक्रय भी होता था। (4) धणधन्नपमाणाइक्कमे इसमें मणि मुक्ता आदि रत्न जाति और पण्य विक्रयार्थ वस्तुएं धन हैं। और गेहूँ, चावल आदि जितने भी अनाज हैं, वे सब धान्य हैं। ___(5) कुवियपमाणाइक्कमे इसका अर्थ है—गृहोपकरण, यथा शय्या, आसन, वस्त्रपात्र आदि घर का सामान, इनके विषय में जो मर्यादा श्रावक ने की है, उसका उल्लङ्घन करना अतिचार है। इस व्रत का मूल भाव इतना ही है कि गृहस्थ अपनी आवश्यकता से अधिक न तो भूमि, मकान आदि रखे, न धन-धान्य का संग्रह करे और न ही मर्यादा से अधिक पशु आदि ही रखे / नैतिक दृष्टि से भी सर्व साधारण को उतनी ही सामग्री रखनी चाहिए जिससे जनता में अपवाद न हो और अपना कार्य भी सुचारु रूपेण चल सके। दिग्व्रत के पाँच अतिचारमूलम् तयाणंतरं च णं दिसिव्वयस्स पंच अइयारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा। तं जहा—उड्ढ-दिसि-पमाणाइक्कमे, अहो-दिसि-पमाणाइक्कमे, तिरिय-दिसि-पमाणाइक्कमे, खेत्त-वुड्ढी, सइअंतरद्धा // 50 // छाया—तदनन्तरं च खलु दिग्व्रतस्य पञ्चातिचारा ज्ञातव्या न समाचरितव्याः, तद्यथाऊर्ध्वदिक्प्रमाणातिक्रमः, अधोदिक्प्रमाणातिक्रमः, तिर्यदिक्प्रमाणातिक्रमः, क्षेत्रवृद्धिः, स्मृत्यन्तनिम्। शब्दार्थ तयाणंतरं च णं इसके अनन्तर, दिसिव्वयस्स–दिग्वत के, पंच अइयारा पांच अतिचार, जाणियव्वा—जानने चाहिएं, न समायरियव्वा—परन्तु उनका आचरण न करना चाहिए, तं जहा—वे इस प्रकार हैं—उड्ढदिसिपमाणाइक्कमे ऊर्ध्वदिक्प्रमाणातिक्रम, अहोदिसिपमाणाइक्कमे— अधोदिक्प्रमाणातिक्रम, तिरियदिसिपमाणाइक्कमे तिर्यग्दिक्प्रमाणातिक्रम, खेत्तवुड्डी क्षेत्रवृद्धि, सइअंतरद्धा और स्मृत्यन्तर्धान / भावार्थ इसके अनन्तर दिग्वत के पाँच अतिचार जानने चाहिएं, परन्तु उनका आचरण न करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं—१. ऊर्ध्वदिक्प्रमाणातिक्रम—ऊर्ध्व दिशा सम्बन्धी मर्यादा का उल्लङ्घन / 2. अधोदिप्रमाणातिक्रम–नीचे की ओर दिशा सम्बन्धी मर्यादा का उल्लङ्घन / 3. तिर्यग्दिक्प्रमाणातिक्रम-तिरछी दिशाओं से सम्बन्ध रखने वाली मर्यादा का उल्लङ्घन / 4. क्षेत्रवृद्धि–व्यापार आदि प्रयोजन के लिए मर्यादित क्षेत्र से आगे बढ़ना। 5. स्मृत्यन्तान—दिशा मर्यादा की स्मृति न रखना / श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 120 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन