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________________ टीका—पांचवें अणुव्रत का नाम है—इच्छा परिमाण व्रत / इच्छा आकाश के तुल्य अनन्त है, उसकी कोई सीमा ही नहीं है, अतः उसे सीमित करना ही इस व्रत का मुख्य उद्देश्य है। आशा, तृष्णा, इच्छा ये तीनों शब्द एक ही अर्थ के द्योतक हैं। इच्छा से ही परिग्रह का निर्माण होता है, अतः इसे सीमित किए बिना व्यक्ति इस व्रत का आराधक नहीं हो सकता। जो अपने पास कनक-कामिनी है या सचित्त-अचित्त परिग्रह है, उस पर ममत्व करना। जो अप्राप्त वस्तु है उसकी प्राप्ति के लिए इच्छा दौड़-धूप करती है। गृहस्थावस्था में इच्छा अनिवार्य उत्पन्न होती है। अणुव्रती श्रावक में आवश्यकता की पूर्ति के लिए ही इच्छा पैदा होती है, शेष इच्छाओं का निरोध हो जाता है, उस ससीम इच्छा से जो अप्राप्त की प्राप्ति होती है, उससे संग्रह बुद्धि पैदा होती है, संगृहीत पदार्थों पर ममत्व हो जाता है। अतः सिद्ध हुआ परिग्रह तीन प्रकार का होता है। भगवान महावीर ने संग्रह और ममत्व रूप परिग्रह का गृहस्थ के लिए सर्वथा निषेध नहीं किया, सबसे पहले इच्छा को परिमित करने के लिए उपदेश दिया है, ज्यों-ज्यों इच्छा कम होती जाती है त्यों-त्यों संग्रह और ममत्व भी कम होता जाता है। जो निःस्पृह मुनिवर होते हैं उनमें न संग्रह बुद्धि होती है और न ममत्व बुद्धि ही, अतः सिद्ध हुआ परिग्रह का मूल कारण इच्छा ही है। जिसने इच्छा को सीमित कर दिया, उसके लिए यह अधिक श्रेय है कि जिन वस्तुओं पर ममत्व है, उनमें से प्रतिदिन शासनोन्नति, श्रुतसेवा, जनसेवा, संघसेवा, इत्यादि शुभ कार्यों में न्यायनीति से उपार्जित द्रव्य को लगाता रहे। अनावश्यक पदार्थों का संग्रह करना श्रावक के लिए निषिद्ध है। . इच्छा को, संग्रह को, ममत्व को नित्यप्रति न्यून करते रहने से देशसेवा, राष्ट्रसेवा, सहानुभूति, स्वकल्याण तथा परकल्याण स्वयमेव हो जाता है। दुख, क्लेश, हैरानी, परेशानी ये सब कुछ परिग्रह से सम्बन्धित हैं। मर्यादित वस्तुओं को बढ़ाना नहीं और उनमें से भी घटाते रहना ये दोनों अपरिग्रहवाद के ही पहलू हैं। नौ प्रकार के परिग्रह की जैसी-जैसी जिसने मर्यादा की है उसका अतिक्रम न करना यह सन्तोष है, उसमें से भी न्यून करते रहना यह उदारता है। ये दोनों गुण सर्वोत्तम हैं। जैसे रोगों से शरीर दूषित हो जाता है, वैसे ही अतिचारों से व्रत दूषित हो जाता है। अब इच्छापरिमाण व्रत के अतिचारों का विवेचन किया जाता है, जैसे कि- (1) खेत्तवत्थुपमाणाइक्कमे—'खेत्त' का अर्थ है खेती करने की भूमि अर्थात् श्रावक ने कृषि के लिए जितनी भूमि रखी है उसका अतिक्रमण करना अतिचार है। और ‘वत्थु' का अर्थ है निवास के योग्य भवन-उद्यान आदि जो श्रावक अपने उपयोग में लाता है, उससे अधिक मकान हवेली अपने पास रखना अतिचार है। (2) हिरण्णसुवण्णपमाणाइक्कमे—इसका अर्थ है—सोना-चाँदी आदि बहुमूल्य धातुएं / मोहर, रुपया आदि प्रचलित सिक्का भी इसी में आता है। (3) दुपय-चउप्पय-पमाणाइक्कमे द्विपद का अर्थ है—दो पैर वाले अर्थात् मनुष्य और चउप्पय | श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 116 | आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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