________________ रहने पर यह भी अनाचार बन जाता है। यहाँ वृत्तिकार के निम्नलिखित शब्द हैं—'रहसा अब्भक्खाणे' त्ति रहः एकान्तस्तेन हेतुना अभ्याख्यानं रहोऽभ्याख्यानम्, एकान्तमात्रोपधितया च पूर्वस्माद्विशेषः, अथवा सम्भाव्यमानार्थभणनादतिचारो न तु भङ्गोऽयमिति। रहः का अर्थ है—एकान्त और उसी का आधार लेकर मिथ्यादोषारोपण करना रहोऽभ्याख्यान है। प्रथम अतिचार की अपेक्षा इसमें एकान्त का आधार रूप विशिष्टता है, अथवा इसमें लगाया जाने वाला आरोप सर्वथा निर्मूल नहीं होता। उसकी सम्भावना रहती है और इसी आधार पर इसकी गणना अतिचारों में की गई है। व्रत भङ्ग नहीं माना गया। (3) सदारमंतभेए (स्वदारमन्त्रभेदः) अपनी स्त्री की गुप्त बातों को प्रकट करना। पारिवारिक जीवन में बहुत सी बातें ऐसी होती हैं जिन्हें सत्य होने पर भी प्रकाशित नहीं किया जाता। उनके प्रकाशित करने पर व्यक्ति को दूसरों के सामने लज्जित होना पड़ता है, अतः शेखी या आवेश में आकर घर एवं परिवार की गुप्त बातों को प्रकट करना अतिचार है। (4) मोसोवएसे (मृषोपदेशः) झूठी सलाह देना या उपदेश देना, इसके कई अर्थ हैं—१. पहला यह है कि जिस बात के सत्यासत्य अथवा हिताहित के विषय में हमें स्वयं निश्चय नहीं है उसकी दूसरों को सलाह देना। 2. दूसरा यह है कि किसी बात की असत्यता अथवा हानिकारिता का ज्ञान होने पर भी दूसरों को उसमें प्रवृत्त होने के लिए कहना। 3. तीसरा रूप यह है कि वास्तव में मिथ्या एवं अकल्याणकारी होने पर भी हम जिस बात को सत्य एवं कल्याणकारी मानते हैं उसमें हित बुद्धि से दूसरे को प्रवृत्त करना। तीसरा रूप दोष कोटि में नहीं आता। क्योंकि उसमें उपदेश देने वाले की ईमानदारी एवं हितबुद्धि पर आक्षेप नहीं आता। दूसरा रूप अनाचार है, उससे व्रत भङ्ग हो जाता है। पहला रूप अतिचार है। उसके अतिरिक्त किसी को हिंसा-पूर्ण कार्यों में प्रवृत्त करना प्रथम व्रत के अतिचारों में आ चुका है। 5. कूडलेहकरणे (कूटलेखकरण) झूठे लेख लिखना तथा जाली हस्ताक्षर बनाना। इस पर टीकाकार के निम्नलिखित शब्द हैं—'कूडलेहकरणे, त्ति असद्भूतार्थस्य लेखस्य विधानमित्यर्थः / एतस्य चातिचारत्वं प्रमादादिना दुर्विवेकत्वेन वा माया मृषावादः प्रत्याख्यातोऽयं तु कूटलेखो, न मृषावादनमिति भावयत इति। तथा कूटम्-असद्भूतं वस्तु तस्य लेखः लेखनं, तद्रूपा क्रिया कूटलेखक्रिया अन्यदीयां मुद्राद्यङ्कितां लिपि हस्तादिकौशलवशादक्षरशोऽनुकृत्य परवञ्चनार्थं सर्वथा तदाकारतया लेखनमित्यर्थ अनाचारातिचारौ तु प्राग्वदेवाभोगानाभोगाभ्यामवगन्तव्यौ'–अर्थात्कूटलेखकरण झूठा लेख लिखना। यह अतिचार तभी है जब असावधानी या विवेकहीनता के रूप में किया गया हो। अर्थात् श्रावक यह सोचने लगे कि मैंने झूठ बोलने का त्याग किया है लिखने का नहीं, यह विवेकहीनता है। अथवा कूट का अर्थ है अविद्यमान वस्तु / उसका लिखना अर्थात् जाली श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 114 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन