________________ (3) भूम्यलीक कृषि, निवास आदि भूमि के सम्बन्ध में असत्य भाषण करना या वस्तुस्थिति को छिपाना। .. (4) न्यासापहार–किसी के न्यास अर्थात् धरोहर में रखी हुई वस्तु को हड़प जाना। किसी संस्था या सार्वजनिक कार्य के लिए संगृहीत धन को उद्दिष्ट कार्य में न लगाकर वैयक्तिक कार्यों में खर्च करना भी न्यासापहार है। सार्वजनिक निधि से वैयक्तिक लाभ उठाना उसे वैयक्तिक प्रसिद्धि या अपने कुटुम्बियों को ऊँचा उठाने में खर्च करना भी इसी के अन्तर्गत है। (5) कूडसक्खिज्जं—(कूटसाक्ष्य) झूठी गवाही देना। (6) सन्धिकरण—षड्यन्त्र करना / उपरोक्त कार्य स्थूल मृषावाद में आते हैं और श्रावक के लिए सर्वथा वर्जित हैं। इनके अध्ययन से ज्ञात होता है कि श्रावक के जीवन में व्यवहार-शुद्धि पर पूरा बल दिया गया था। व्यापार या अन्य व्यवहार में झूठ बोलने वाला श्रावक नहीं हो सकता था। इस व्रत के भी पांच अतिचार हैं (1) सहसा अब्भक्खाणे सहसा का अर्थ है बिना विचारे और अब्भक्खाणे का अर्थ है दोषारोपण करना। यदि मिथ्यारोप विचारपूर्वक दूसरे को हानि पहुँचाने के लिए किया जाता है तो वह अनाचर है, उससे श्रावक का व्रत टूट जाता है, किन्तु उसे इस बात के लिए भी सावधान रहना चाहिए कि बिना विचारे भी रोष या आवेश में आकर अथवा अनायास ही किसी पर दोषारोपण न करे। यह भी एक प्रकार का दोष है और व्रत में शिथिलता उत्पन्न करता है। यहाँ टीकाकार के निम्नलिखित शब्द हैं—'सहसा अब्भक्खाणे, त्ति सहसा—अनालोच्याभ्याख्यानम् असदोषाध्याक्षेपणं सहसाभ्याख्यानं यथा चौरस्त्वमित्यादि, एतस्य चातिचारत्वं सहसाकारेणैव न तीव्रसंक्लेशेन भणनादिति, अर्थात् बिना विचारे ही दूसरे पर मिथ्या दोषारोपण करना सहसाभ्याख्यान है—जैसे तू चोर है इत्यादि। यह कार्य सहसा अर्थात् बिना विचारे किया जाने के कारण ही अतिचार कोटि में आता है। यदि तीव्र संक्लेश अर्थात् दुर्भावना पूर्वक किया जाए तो अतिचार नहीं रहता, अनाचार बन जाता है। (2) रहसा अब्भक्खाणे (रहोऽभ्याख्यान) इसका अर्थ दो प्रकार से किया जाता है। पहला अर्थ है रहस्य अर्थात् किसी कि गुप्त बात को अचानक प्रकट करना / दूसरा अर्थ है किसी पर रहस्य अर्थात् छिपे-छिपे षड्यन्त्र आदि करने का आरोप लगाना / उदाहरण के रूप में कुछ आदमी एकान्त में बैठे परस्पर वार्तालाप कर रहे हैं, अचानक उन पर यह आरोप लगाना कि वे राज्यविरुद्ध षड्यन्त्र कर रहे हैं या कहीं पर चोरी, डकैती आदि की योजना बना रहे हैं। यह कार्य भी अतिचार वहीं तक है, जब मन में दूसरे को हानि पहुँचाने की भावना न हो और अनायास ही किया जाए। मन में दुर्भावना | , श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 113 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन /