________________ सत्यव्रत के अतिचार मूलम् तयाणंतरं च णं थूलगस्स मुसा-वाय-वेरमणस्स पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा। तं जहा—सहसा अब्भक्खाणे, रहसा अब्भक्खाणे, सदार-मंत-भेए, मोसोवएसे, कूड-लेह-करणे // 46 // छाया—तदनन्तरं च खलु स्थूलकस्य मृषावादविरमणस्य पञ्चातिचारा ज्ञातव्या न समाचरितव्याः, तद्यथा—सहसाभ्याख्यानं, रहोऽभ्याख्यानं, स्वदारमन्त्रभेदः, मृषोपदेशः, कूटलेखकरणम् / शब्दार्थ तयाणंतरं च णं—इसके अनन्तर, थूलगस्स मुसा-वाय-वेरमणस्स—स्थूल मृषावादविरमण व्रत के, पंच अइयारा—पाँच अतिचार, जाणियव्वा—जानने चाहिएँ, न समायरियव्वा—परन्तु आचरण न करने चाहिएँ। तं जहा—वे इस प्रकार हैं—सहसा अब्भक्खाणे सहसा अभ्याख्यानं, रहसा अब्भक्खाणे रहस्याभ्याख्यान, सदार-मंत-भेए—स्वदारमन्त्रभेद, मोसोवएसे—मृषोपदेश, कूड-लेहकरणे—और कूटलेखकरण। भावार्थ तदनन्दर स्थूल मृषावादविरमण व्रत के पांच अतिचार जानने चाहिएं, परन्तु उनका आचरण न करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं—१. सहसाभ्याख्यान किसी पर बिना विचारे मिथ्या आरोप लगाना, 2. रहोऽभ्याख्यान किसी की गुप्त बात प्रकाशित करना। 3. स्वादारमन्त्रभेद पत्नी की गुप्त बात प्रकट करना। 4. मृषोपदेश-खोटी सलाह देना या मिथ्या उपदेश देना। 5. कूटलेखकरण—खोटा लेख लिखना अर्थात् दूसरे को धोखा देने के लिए जाली दस्तावेज बनाना टीका प्रस्तुत पाठ में मृषावाद विरमण अर्थात् असत्यभाषण के परित्याग रूप व्रत के अतिचार बताए गए हैं, इसमें भी स्थूल विशेषण लगा हुआ है अर्थात् श्रावक स्थूल मृषावाद का परित्याग करता है, सूक्ष्म का नहीं। शास्त्रों में स्थूल मृषावाद का स्वरूप बताते हुए उदाहरण के लिए नीचे लिखी बातें बताई हैं (1) कन्यालीक वैवाहिक सम्बन्ध की बातचीत करते समय कन्या की आयु तथा शरीर, वाणी एवं मस्तिष्क सम्बन्धी दोषों को छिपाना अथवा उसकी योग्यता के सम्बन्ध में अतिशयोक्तिपूर्ण असत्य भाषण करना। (2) गवालीक—पशु का लेन-देन करते समय असत्य भाषण करना, जैसे कि थोड़ा दूध देने वाली गाए और भैंस के लिए कहना कि अधिक दूध देती है अथवा बैल आदि के लिए कहना कि यह अधिक काम कर सकता है, परन्तु वह उतनी क्षमता वाला नहीं होता, इत्यादि। " श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 112 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन