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________________ (1) बंधे - इसका अर्थ है पशु अथवा दास आदि को ऐसा बांधना जिससे उसे कष्ट हो। यहाँ भी मुख्य दृष्टि विचारों की है। यदि चिकित्सा के निमित्त या संकट से बचाने के लिए पशु आदि को बांधा जाता है तो वह अतिचार नहीं है। शास्त्रकारों ने बन्ध के दो भेद किए हैं—अर्थ बन्ध और अनर्थ बन्ध। अनर्थ बन्ध तो हिंसा है ही और वह अनर्थदण्ड नामक आठवें व्रत में आती है। अर्थबन्ध भी यदि क्रोध, द्वेष आदि क्रूर भावों के साथ किया गया है तो वह अतिचार है। अर्थबन्ध के पुनः दो भेद हैं, सापेक्ष और निरपेक्ष / अग्नि आदि का भय उत्पन्न होने पर जिस बन्धन से सहज मुक्ति मिल सके उसे सापेक्ष बन्ध कहते हैं। यह अतिचार में नहीं आता। इसके विपरीत भय उत्पन्न होने पर भी जिस बन्धन से छुटकारा मिलना कठिन हो उसे निरपेक्ष बन्ध कहते हैं। ऐसा बन्धन बांधना अतिचार है। (2) वहे (वध) यहाँ वध का अर्थ हत्या नहीं है। हत्या करने पर तो व्रत सर्वथा टूट जाता है / अतः वह अनाचार है। यहाँ वध का अर्थ है घातक प्रहार, ऐसा जिससे अंगोपांगादि को हानि पहुँचे / (3) छविच्छेए*—इसका अर्थ है अङ्गविच्छेद अर्थात् क्रोध में आकर किसी के अङ्ग को काट डालना अथवा अपनी प्रसन्नता के लिए कुत्ते आदि के कान, पूंछ काट देना। (4) अइभारे (अतिभारः) इसका अर्थ पशु या दास पर सामर्थ्य से अधिक बोझ लादना / नौकर, मजदूर या अन्य कर्मचारी से इतना काम लेना कि वह उसी में पिस जाए, यह भी अतिभार है। इतना ही नहीं परिवार के सदस्यों में भी.किसी एक पर काम का अधिक बोझ डालना अतिचार है। ___ (5) भत्तपाणवोच्छेए (भत्तपानव्यवछेदः) इसका स्थूल अर्थ है मूक पशु को भूखा तथा प्यासा रखना या उसे चारा एवं पानी समय पर न देना। नौकर आदि आश्रितों का समय पर वेतन न देना, उनके वेतन में अनुचित कटौती करना, किसी की आजीविका में बाधा डालना, या अपने आश्रितों से काम अधिक लेना और उसके अनुरूप भोजन या वेतन न देना। खाद्य एवं पेय सामग्री को दूषित करना आदि भी इसी अतिचार के अन्तर्गत हैं। सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन की दृष्टि से इस व्रत का बहुत महत्त्व है। यह स्पष्ट है कि उक्त अतिचार खासतौर पर उस परिस्थिति को सामने रखकर बताए गए हैं; जब कि पशुपालन गृहस्थ जीवन का आवश्यक अङ्ग था। वर्तमान जीवन में पशुपालन गौण हो गया है और अत्याचार एवं क्रूरता के नए-नए रूप सामने आ रहे हैं, अतः प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जीवनचर्या के अनुसार इन अतिचारों का मूल हार्द ग्रहण कर लेना चाहिए जिससे इनका दैनन्दिन व्यवहार के साथ जीवित सम्बन्ध बना रहे / छविच्छेए-(सं.-छविच्छेद) इसका साधारण अर्थ अंग-विच्छेद किया जाता है किन्तु अर्धमागधी में 'छ' या 'छवि' के रूप में कोई शब्द नहीं है जिसका अर्थ अंग होता है। प्रतीत होता है, यह शब्द 'छयविच्छेए' रहा होगा जिसका अर्थ है 'क्षतविच्छेद / ' 'क्षत' का अर्थ है घाव और 'विच्छेद' का अर्थ अंगविच्छेद किया जा सकता है। पालि में छवि शब्द का अर्थ त्वचा है। यदि यह अर्थ माना जाए तो छविच्छेद का अर्थ होगा ऐसा घाव करना जिससे त्वचा का छेदन हो जाए। प्रस्तुत में यह अर्थ भी किया जा सकता है–सम्पादक। श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 111 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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