SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दस्तावेज बनाना या किसी के नाम की मुद्रा अथवा मोहर बनाना। दूसरे को धोखा देने के लिए जाली हस्ताक्षर बनाना आदि / पूर्वोक्त अतिचारों के समान प्रस्तुत कार्य भी यदि असावधानी, विवेकहीनता अथवा अन्य किसी रूप में अनिच्छापूर्वक किया जाता है तो अतिचार है और यदि दूसरे को हानि पहुंचाने के लिए इच्छापूर्वक किया जाए तो अनाचार है। अस्तेय व्रत के अतिचार मूलम् तयाणंतरं च णं थूलगस्स अदिण्णादाण वेरमणस्स पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा। तं जहा तेणाहडे, तक्करप्पओगे, विरुद्धरज्जाइक्कमे, कूड-तुल्ल-कूडमाणे, तप्पडिरूवग ववहारे // 47 // छाया तदनन्तरं च खलु स्थूलकस्याऽदत्तादानविरमणस्य पञ्चातिचाराः ज्ञातव्या न समाचरितव्याः, तद्यथा, स्तेनाहृतं, तस्करप्रयोगः, विरुद्धराज्यातिक्रमः, कूटतुलाकूटमानं, तप्रतिरूपकव्यवहारः। शब्दार्थ तयाणंतरं च णं इसके अनन्तर, थूलगस्स अदिण्णादाणवेरमणस्स—स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत के, पंच अइयारा–पाँच अतिचार, जाणियव्वा—जानने चाहिएं, न समायरियव्वा—परन्तु आचरण न करने चाहिएं। तं जहा-वे इस प्रकार हैं तेणाहडे—स्तेनाहृत, तक्करप्पओगेतस्करप्रयोग, विरुद्धरज्जाइक्कमे विरुद्धराज्यातिक्रम, कूडतुलाकूडमाणे कूट-तुला, कूट-मान, तप्पडिरूवगववहारे और तत्प्रतिरूपक व्यवहार। भावार्थ तदनन्तर स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत के पांच अतिचार जानने चाहिएं, परन्तु उनका आचरण न करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं—(१) स्तेनाहृत—चोर के द्वारा लाई हुई वस्तु को स्वीकार करना। (2) तस्करप्रयोग व्यवसाय के रूप में चोरों को नियुक्त करना। (3) विरुद्धराज्यातिक्रम-विरोधी राजाओं द्वारा निषिध सीमा का उल्लंघन करना। अर्थात् परस्पर विरोधी राजाओं ने अपनी-अपनी जो सीमा निश्चित कर रखी हैं उन्हें लांघकर दूसरे की सीमा में जाना / यहाँ साधारणतया "राजविरुद्ध कार्य करना'' ऐसा अर्थ भी किया है। किन्तु वह मूल शब्दों से नहीं निकलता। टीका में भी यह अर्थ नहीं है। (4) कूटतुला कूटमान–खोटा तोलना और खोटा मापना। (5) तत्प्रतिरूपकव्यवहार—संमिश्रण के द्वारा अथवा अन्य किसी प्रकार से नकली वस्तु को असली के रूप में चलाना। टीका—अदत्तादान का अर्थ है बिना दी हुई वस्तु को लेना। अन्य व्रतों के समान यहाँ भी श्रावक स्थूल अदत्तादान का त्याग करता है, सूक्ष्म का नहीं। शास्त्रों में स्थूल अदत्तादान के नीचे लिखे रूप बताए गए हैं श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 115 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy