________________ पांच-पांच अतिचार बताए। अतिचार का अर्थ है, व्रत में किसी प्रकार की शिथिलता या स्खलना। . इससे अगली कोटी अनाचार की है, जहां व्रत टूट जाता है। प्रस्तुत पाठ में श्रमणोपासक अर्थात् श्रावक के दो विशेषण दिए हैं (1) अभिगयजीवाजीवेणं अर्थात् जो जीव तथा अजीव का स्वरूप जानता है। जैन धर्म में 6 तत्त्व माने गए हैं। उनमें प्रथम दो जीव और अजीव हैं। विश्व इन्हीं दो तत्त्वों में विभक्त है। इससे यह स्पष्ट है कि जैन दर्शन विश्व के मूल में परस्पर भिन्न दो तत्त्व मानता है। ये जीव की आध्यात्मिक चेतना और उसके शुभाशुभ परिणामों को प्रकट करते हैं। अतः इनका ज्ञान भी जीव तत्त्व के ज्ञान के साथ अनिवार्य है। प्रस्तुत सूत्र में जीव तथा अजीव में सब को सम्मिलित कर लिया गया है। (2) अणइक्कमणिज्जेणं (अनतिक्रमणीयेन) इसका अर्थ है—वह व्यक्ति जिसका कोई. अतिक्रमण नहीं कर सकता अर्थात् जिसे अपने निश्चय से कोई विचलित नहीं कर सकता। इसी उपासकदशाङ्गसूत्र में कामदेव आदि ऐसे श्रावकों का वर्णन है, जिन्हें अनुकूल तथा प्रतिकूल किसी प्रकार के विघ्न विचलित न कर सके। देवताओं ने अनेक प्रकार के भय दिखाए और सांसारिक सुखों के आकर्षण भी उपस्थित किए, किन्तु वे अपने व्रत पर दृढ़ रहे। __प्रस्तुत सूत्र में सम्यक्त्व के पांच अतिचार बताए गए हैं—सम्यक्त्व अर्थात् श्रद्धा धर्म की . आधारशिला है। इसके बिना ज्ञान और चारित्र निष्फल हैं। जिस व्यक्ति की श्रद्धा विपरीत है अर्थात् असत्य की ओर है, उसे मिथ्यात्वी कहा जाता है, वह धर्म के क्षेत्र से बहिर्भूत है। जिस व्यक्ति की श्रद्धा तो सम्यक् है किन्तु उसमें कभी-कभी शिथिलता या दुर्बलता आ जाती है, उसी के निराकरण के लिए नीचे लिखे पांच अतिचार बताए गए हैं (1) संका—(शङ्का) इसका अर्थ है सन्देह अर्थात् आत्मा, स्वर्ग, नरक, पुण्य, पाप, आदि जिन तत्त्वों का प्रतिपादन सर्वज्ञदेव ने किया है, उनके अस्तित्व में सन्देह होना। यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है क्या व्यक्ति को धार्मिक बातों के सम्बन्ध में ऊहापोह करने का अधिकार नहीं है? मन में संदेह उत्पन्न होने पर उसे क्या करना चाहिए? इसका उत्तर यह है कि संशय निवारण के लिए ऊहापोह करने और शङ्का में परस्पर पर्याप्त भेद है। यदि मन में जिज्ञासा उत्पन्न होने पर विश्वास डावांडोल हो जाता है तो वह शङ्का है। विश्वास को दृढ़ रखते हुए प्रश्नोत्तर करना शङ्का नहीं है। उसमें तो विश्वास में उत्तरोत्तर दृढ़ता आती है। भगवान् महावीर के प्रधान शिष्य श्री गौतम स्वामी श्रद्धा की दृष्टि से सर्वोच्च माने गए हैं। किन्तु उनके लिए भी भगवतीसूत्र में बार-बार आया है कि मन में संशय उत्पन्न हुआ और निराकरण के लिए वे भगवान के पास गए। गौतम का संशय श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 108 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन