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________________ अथवा किसी पशु अथवा मनुष्य को व्यर्थ ही कष्ट देने के लिए अन्य व्यक्तियों को उकसाना, बच्चों को किसी पागल अथवा घायल मनुष्य, पशु पर पत्थर आदि मारने के लिए कहना, किसी अपरिचित के पीछे कुत्ते लगाना आदि बातें इस अनर्थदण्ड में आती हैं। मानव जीवन में नैतिक अनुशासन के लिए यह व्रत अत्यन्त महत्वपूर्ण है। सम्यक्त्व व्रत के पांच अतिचारमूलम् इह खलु आणंदा इ समणे भगवं महावीरे आणंदं समणोवासगं एवं वयासी—एवं खलु, आणंदा! समणोवासएणं अभिगय-जीवाजीवेणं जाव अणइक्कमणिज्जेणं सम्मत्तस्स पंच अइयारा पेयाला जाणियव्वा, न समायरियव्वा / तं जहा—संका, कंखा, विइगिच्छा, पर-पासंड-पसंसा, पर-पासंड-संथवे // 44 // छाया इह खलु आनन्द! इति श्रमणो भगवान् महावीर आनन्दं श्रमणोपासक-मेवमवादीत्-एवं खलु आनन्द! श्रमणोपासकेनाभिगतजीवाजीवेन यावदनतिक्रमणीयेन सम्यक्त्वस्य पञ्चातिचाराः प्रधानाः (मुख्या) ज्ञातव्या न समाचरितव्याः। तद्यथा शङ्का, कांक्षा, विचिकित्सा, परपाषण्ड प्रशंसा, परपाषण्ड संस्तवः। - शब्दार्थ इह खलु इसी प्रसंग में, आणंदा इ समणे भगवं महावीरे श्रमण भगवान् महावीर ने हे आनन्द ! इस प्रकार सम्बोधित कहते हुए, आणंदं समणोवासगं—आनन्द श्रमणोपासक को, एवं इस भांति, वयासी—कहा, आणंदा हे आनन्द ! एवं खलु इस प्रकार, अभिगयजीवाजीवेणं जाव अणइक्कमणिज्जेणं जीव तथा अजीव के स्वरूप को जानने वाले यावत् अनतिक्रमणीय (धर्म से विचलित न होने वाले), समणोवासएणं श्रमणोपासक को, सम्मत्तस्स—सम्यक्त्व के, पंच-पांच, पेयाला प्रधान, अइयारा-अतिचार, जाणियव्वा—जानने चाहिएं, न समायरियव्वा परन्तु उनका आचरण नहीं करना चाहिए। तं जहा—वे इस प्रकार हैं—संका शङ्का, कंखा—कांक्षा, विइगिच्छा—विचिकित्सा अर्थात् धर्म साधन के प्रति (संशय), पर-पासंड-पसंसा–पर-पाषण्ड अर्थात् अन्यमतावलम्बी की प्रशंसा, पर-पासंड-संथवे—और परपाषण्डसंस्तव अर्थात् अन्यमतावलम्बी के साथ सम्पर्क या परिचय। भावार्थ इसके अनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने आनन्द श्रमणोपासक को इस प्रकार कहा हे आनन्द! जीवाजीव आदि पदार्थों के स्वरूप को जानने वाले तथा धर्म से विचलित न होने वाले और मर्यादा में स्थिर रहने वाले श्रमणोपासक को सम्यक्त्व के पांच मुख्य अतिचार अवश्य जान लेने चाहिएं परन्तु उनका आचरण नहीं करना चाहिए, वे इस प्रकार हैं—(१) शंका, (2) कांक्षा, (3) विचिकित्सा, (4) परपाषण्डप्रशंसा और (5) परपाषण्डसंस्तव / टीका—आनन्द द्वारा व्रत ग्रहण कर लेने पर उनमें दृढ़ता लाने के लिए भगवान् ने प्रत्येक व्रत के श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 107 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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