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________________ का, पच्चक्खामि—प्रत्याख्यान किया, तं जहा—वह इस प्रकार है-अवज्झाणायरियंअपध्यानाचरित, पमायायरियं प्रमादाचरित, हिंसप्पयाणं हिंस्रप्रदान, पावकम्मोवएसं—और पाप कर्म का उपदेश। भावार्थ इसके अनन्तर आनन्द ने भगवान् महावीर से कहा कि मैं अपध्यानाचरित–दुर्ध्यान करना, प्रमादाचरित–विकथा आदि प्रमाद का आचरण करना, हिंस्र प्रदान–हिंसक शस्त्रास्त्रों का वितरण तथा पाप कर्म का उपदेश करना—इन चार अनर्थदण्डों का प्रत्याख्यान करता हूं। टीका अणट्ठादंडं—इस पर वृत्तिकार के निम्नलिखित शब्द हैं— 'अणट्ठादण्ड, त्ति अनर्थेनधर्मार्थकामव्यतिरेकेण दण्डोऽनर्थदण्डः' अर्थात् धर्म, अर्थ और काम किसी भी प्रयोजन के बिना जो दण्ड अर्थात् हिंसा की जाती है उसे अनर्थदण्ड कहते हैं। जीवन में अनुशासन के लिए आवश्यक है कि हम ऐसा कार्य न करें जिसमें बिना ही किसी उद्देश्य के दूसरे को हानि पहुंचे। मुनि अपने स्वार्थ के लिए भी किसी को हानि नहीं पहुंचाता। किन्तु श्रावक को पारिवारिक जीवन के लिए ऐसे अनेक कार्य करने पड़ते हैं जिनमें एक का लाभ दूसरे की हानि पर निर्भर है। उसे चाहिए कि ऐसी प्रवृत्तियों को भी यथाशक्ति घटाता जाए। किन्तु ऐसे कार्यों को तो सर्वथा छोड़ दे, जिनमें उसका कोई लाभ नहीं है और व्यर्थ ही दूसरे को हानि पहुंचती है। इस प्रकार के कार्यों को निम्नलिखित चार कोटियों में गिनाया गया है (1) अपध्यानाचरित—इसका अर्थ है दुश्चिन्ता / वह दो प्रकार की है—१. आर्तध्यान अर्थात् धन, सन्तान, स्वास्थ्य आदि इष्ट वस्तुओं के प्राप्त न होने पर तथा रोग, दरिद्रता, प्रियवियोग आदि अनिष्ट के प्राप्त होने पर होने वाली मानसिक चिन्ता। 2. रौद्रध्यान अर्थात् क्रोध, शत्रुता आदि से प्रेरित होकर दूसरे को हानि पहुंचाने की भावना।। ___ इन दोनों प्रकार के ध्यानों से प्रेरित होकर मन में दुश्चिन्ता अथवा बुरे विचार लाना अपध्यानाचरित अनर्थदण्ड है। (2) प्रमादाचरित–प्रमाद का अर्थ है—असावधानी या जीवन की शिथिलता। खाली बैठकर दूसरों की निन्दा करते रहना, श्रृंगार सम्बन्धी बातें करना, दूसरों की पंचायत करते रहना, अपने कर्तव्य का ध्यान न रखना, आदि बातों से उत्पन्न मन, वचन तथा शरीर सम्बन्धी विकार इस कोटि में आते हैं। (3) हिंस्रप्रदान—इसका अर्थ है–शिकारी, चोर, डाकू आदि को शस्त्र अथवा उन्हें अन्य प्रकार से सहायता देना, जिससे हिंसा को प्रोत्साहन मिले। (4) पापकर्मोपदेश—इसका अर्थ है दूसरों को पाप कर्म में प्रवृत्त करना / उदाहरण के रूप में शिकारी या चिड़ीमार को यह बताना कि अमुक स्थान पर हिरण अथवा पक्षियों का बाहुल्य है। श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 106 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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