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________________ जिज्ञासारूप थां, शङ्कारूप नहीं। उपनिषदों में भी मनन अर्थात् युक्तिपूर्वक विचार को आवश्यक माना गया है। किन्तु वह तर्क ऐसा नहीं होना चाहिए, जिससे मूल विश्वास को आघात पहुंचे। जहां तर्क और श्रद्धा में परस्पर विरोध हो, वहां श्रद्धा को सुस्थिर रखते हुए अपनी बुद्धि की मर्यादा को समझना चाहिए और यही मानना चाहिए कि बुद्धि अज्ञान या पूर्व के जमे हुए विश्वासों के कारण उस सूक्ष्म तत्त्व को ग्रहण नहीं कर रही है। उसे ग्रहण करने के लिए पुनः पुनः प्रयत्न करना चाहिए। किन्तु श्रद्धा को शिथिल नहीं होने देना चाहिए। (2) कंखा—(कांक्षा) इसका अर्थ है बाह्य आडम्बर अथवा अन्य प्रलोभनों से आकृष्ट होकर किसी अन्य मत की ओर झुकाव होना। बाह्य प्रभाव को देखकर सत्य से विचलित होना इसी के अन्तर्गत है। (3) विइगिच्छा-(विचिकित्सा) धर्मानुष्ठान के फल में संदेह करना अर्थात् तपश्चरण आदि करते समय सन्देहशील होना कि फल प्राप्त होगा या नहीं। इस प्रकार का सन्देह कार्य सिद्धि का बहुत बड़ा बाधक है। (4) परपासंडपसंसा—(परपाषण्ड प्रशंसा) वर्तमान हिन्दी भाषा में पाखण्ड शब्द का अर्थ है ढोंग अथवा मिथ्या आडम्बर और पाखण्डी का अर्थ है ढोंगी। किन्तु प्राचीन समय में यह शब्द निन्दावाचक नहीं था। उस समय इसका अर्थ था मत या सम्प्रदाय / अशोक की धर्मलिपियों में विभिन्न मतों के लिए पासंड शब्द प्रयोग किया है। यहां भी वही अर्थ है। परपासंड का अर्थ है—जैन धर्म को छोड़कर अन्य मतों के अनुयायी। उनकी प्रशंसा करने का अर्थ है—अपने विश्वास में कमी। शुद्ध आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाए तो इसका अर्थ है-अपनी श्रद्धा से विपरीत चलने वालों अथवा विपरीत प्रवृत्ति करने वालों की प्रशंसा करना / साधक को इस प्रकार की शिथिलता से दूर रहना चाहिए। परपासंडसंथवे. (परपाषण्ड संस्तवः) संस्तव का अर्थ है परिचय या सम्पर्क। सच्चे साधक को भिन्न मार्ग पर चलने वाले के साथ परिचय नहीं बढ़ाना चाहिए। पेयाला—इस पर निम्नलिखित टीका है—'पेयाला' त्ति साराः प्रधानाः अर्थात् सार या प्रधानभूत। अहिंसा व्रत के पांच अतिचार ___ मूलम् तयाणंतरं च णं थूलगस्स पाणाइवायवेरमणस्स समणोवासएणं पंच अइयारा पेयाला जाणियव्वा, न समायरियव्वा / तं जहां बंधे, वहे, छविच्छेए, अइभारे, भत्तपाण वोच्छेए // 45 // श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 106 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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