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________________ (36) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध अन्त समय में नमस्कार सहित मृत्यु प्राप्त कर प्रथम देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हुआ। यह दूसरा भव जानना।।२।। फिर देवभव में एक पल्योपम की आयु भोग कर वहाँ से च्यव कर तीसरे भव में श्री ऋषभदेवस्वामी के पुत्र भरत चक्रवर्ती का पुत्र मरीचि हुआ। एक दिन श्री ऋषभदेव भगवान की देशना सुन कर उसने दीक्षा ग्रहण की। उस समय भरत राजा के पाँच सौ पुत्र और सात सौ पौत्र इस प्रकार बारह सौ लोगों ने भी दीक्षा ली। ___एक दिन ग्रीष्मकाल में शरीर में अधिक ताप लगने के कारण मरीचि के मन में नहाने की इच्छा हुई। उस समय संयम का निर्वाहं बड़ा कठिन था। इससे दीक्षापालन में असमर्थ हो कर घर भी जाया नहीं जा सकता; यह सोच कर साधु-वेष छोड़ कर उसने मनः कल्पना से नया त्रिदंडी वेश धारण किया। लोग जब उससे पूछते, तब वह कहता कि- साधु तीन दंड से रहित हैं और मैं तीन दंड सहित हूँ; इसलिए मेरे तीन दंड का चिन्ह है। साधु महाराज द्रव्य और भाव से लोच करते हैं, मैं लोच करने में असमर्थ हूँ; इसलिए मेरे मस्तक पर शिखा और मुंडन अर्थात् क्षुरमुंडन है। साधु सब प्राणातिपातादिक से विरक्त हैं, मुझसे वैसा पालन नहीं होता; इसलिए मुझे स्थूल प्राणातिपात की विरति है। साधु शील से सुगंधित हैं और मैं वैसा नहीं हूँ; इसलिए मेरे बावना-चन्दन का विलेपन है। साधु मोहरहित हैं और मैं मोह से ढंका हुआ हूँ; इसलिए मेरे एक छत्र ढंकने के लिए है। साधु पादुकाओं से रहित हैं और मैं वैसा नहीं हूँ; इसलिए मेरे पैरों में पाँवरी है। साधु कषाय से रहित हैं और मैं कषायसहित हूँ; इसलिए मेरे काषायिक याने गेरू के रंगे वस्त्र हैं तथा साधु स्नान से रहित हैं और मैं स्नान से रहित नहीं हूँ; इसलिए मेरे स्वल्प जल से स्नान है। इस प्रकार का वेश धारण कर तथा हाथ में जल कमंडल ले कर वह भगवान के समवसरण के बाहर बैठता; परन्तु ऐसा विरूप वेश होते हुए भी उसे जो कोई पूछता उससे वह सत्य हकीकत कहता और अपने पास आने वाले को शुद्ध साधुमार्ग का उपदेश दे कर श्री ऋषभदेव भगवान के पास
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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