________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (37) दीक्षा दिलवाता। इस तरह वह भगवान के साथ विचरता था। एक दिन श्री ऋषभदेवस्वामी का अयोध्या में आगमन हुआ। उस समय भरत चक्रवर्ती ने परमेश्वर को वन्दन कर के पूछा कि हे भगवन्त! इस समवसरण में क्या कोई तीर्थंकर का जीव है? उस समय भगवान बोले कि समवसरण में तो नहीं है, पर समवसरण के बाहर तेरा मरीचि नामक पत्र जिसने त्रिदंडी वेश धारण किया है, वह चौबीसवाँ श्री महावीर नामक तीर्थंकर होगा तथा इसी मरीचि का जीव इस भरतक्षेत्र के पोतनपुर नगर में त्रिपृष्ठ नामक पहला वासुदेव होगा और श्री महाविदेहक्षेत्र की मूका नगरी में प्रियदर्शन नामक चक्रवर्ती होगा। यह बात सुन कर भरत महाराज हर्षवन्त हो कर श्री भगवान से मरीचि को वन्दन करने की आज्ञा ले कर समवसरण के बाहर जहाँ मरीचि बैठा था; वहाँ आये और तीन प्रदक्षिणा दे कर उसे वन्दन कर के कहा कि हे मरीचि! मैं तुम्हें तथा तुम्हारे त्रिदंडी वेश को तथा तुम वासुदेव होगे, उस वासुदेवपने को तथा चक्रवर्तीपने को नमन नहीं करता; पर चौबीसवें श्री महावीर नामक तीर्थंकर तुम होगे; इसलिए तुम्हें वन्दन करता हूँ। इतना कह कर भरत महाराज अपने स्थान पर चले गये। यह बात सुन कर मरीचि बहुत आनन्द से बोला कि मेरे दादा तीर्थंकर हैं, मेरे पिता चक्रवर्ती हैं और मैं भी पहला वासुदेव होऊँगा, फिर चक्रवर्ती होऊँगा तथा अन्तिम चौबीसवाँ तीर्थंकर भी होऊँगा। इसलिए मुझे वासुदेवादिक अधिक पदवियाँ मिलेंगी। इससे 'अहो! मेरा उत्तम कुल कितना महान है!' यह कह कर वह अपनी भुजा से ताल ठोंक कर हाथ से तालियाँ बजा बजा कर नाचने लगा। इस तरह उसने अपने कुल का मद किया। इससे उसने नीच गोत्र कर्म बाँधा। क्योंकि 1. जातिमद, 2. कुलमद, 3. लाभमद, 4. ऐश्वर्य मद, 5. बलमद, 6. रूपमद, 7. तपमद और 8. श्रुतमद ये आठ मद करने से जीव हीनजाति आदि प्राप्त करता है। एक दिन मरीचि के शरीर में कोई रोग उत्पन्न हुआ। तब उसका भिन्न वेश देख कर असंयतीपने के कारण किसी भी साधु ने उसकी वैयावच्च