________________ (27) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध लिखा जा सकता है। आठवाँ कर्मप्रवाद पूर्व लिखने के लिए एक सौ अट्ठाईस हाथी जितनी स्याही चाहिये। नौवाँ प्रत्याख्यान प्रवाद पूर्व लिखने के लिए दो सौ छप्पन्न हाथी जितनी, दसवाँ विद्या प्रवादपूर्व लिखने के लिए पाँच सौ बारह हाथी जितनी, ग्यारहवाँ कल्याणप्रवाद पूर्व लिखने के लिए एक हजार चौबीस हाथी जितनी, बारहवाँ प्राणावायप्रवाद पूर्व लिखने के लिए दो हजार अड़तालीस हाथी जितनी, तेरहवाँ क्रियाविशाल पूर्व लिखने के लिए चार हजार छियानबे हाथी जितनी और चौदहवाँ लोकबिन्दुसार पूर्व लिखने के लिए आठ हजार एक सौ बानवे हाथी जितनी स्याही चाहिये। इस प्रकार चौदह पूर्व लिखना शुरु करें तो कुल 16383 हाथियों के ढेर जितनी स्याही चाहिये परन्तु आज तक किसी ने लिखे नहीं है और आगे कोई लिखेगा भी नहीं। मात्र प्रमाण बता कर श्री केवली भगवान ने उपमा बतायी है। यह सूत्र से मान कहा। अब इन चौदह पूर्वो का अर्थ से मान कहते हैं- सब नदियों की रेत के जितने कण होते हैं तथा असंख्यात समुद्रों के जल के जितने बिन्दु होते हैं; उनसे भी अधिक एक एक सूत्र के पद का अर्थ जानना। व्याख्यान में कल्पसूत्र-वाचन का समय पूर्वकाल में भाद्रपद सुदि पंचमी के दिन रात में सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करने के बाद आधी रात के समय कालग्रहण कर के श्री गुरु महाराज खड़े खड़े कल्पसूत्र के सूत्रपाठ का मुख से उच्चारण करते थे और अन्य सब साधु काउसग्ग कर के श्रवण करते थे तथा दिन के समय साध्वियों को भी सुनाते थे। पर श्री महावीर भगवान के निर्वाण के नौ सौ अस्सीवें वर्ष में आगम पुस्तकारूढ़ हुआ। श्री वीर निर्वाण के नौ सौ तिरानबेवें वर्ष में आनन्दपुर नगर में, जिसे आजकल बडनगर कहते हैं; वहाँ ध्रुवसेन राजा राज करता था। उसके अत्यन्त वल्लभ सेनांगज नामक एक पुत्र था। दैवयोग से उसकी मृत्यु हो गयी। इतने में पर्युषण पर्व का आगमन हुआ। पर राजा बहुत शोकाक्रान्त था, इसलिए धर्मशाला में भी आता नहीं था। और फिर जैसे राजा चलता है, वैसे ही प्रजा भी चलती है। इस हेतु से सेठ-साहूकार, व्यवहारी प्रमुख लोग भी धर्मशाला में आते नहीं थे। राजा को ऐसा शोकातुर जान कर धर्म की हानि होते देख कर गुरु