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________________ (390) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध हुक्म के बिना वह किसी अन्य को अपने घर में आने नहीं देती, यह जान कर उसने अपनी कोई कला बता कर राजा को प्रसन्न किया। तब राजा ने प्रसन्न हो कर कहा कि तु जो माँगेगा, वह मैं तुझे दूँगा। रथकार ने कोशा की माँग की। राजा ने उसे हुक्म दिया और कोशा को सौंप दिया। _____ कोशा नितप्रति रथकार के पास श्री स्थूलिभद्रजी का गुणगान करने लगी। यह देख कर रथकार ने सोचा कि यदि मैं इसे कोई कला बताऊँ, तो यह मेरे गुण जानेगी और मेरी स्तुति भी करेगी। यह सोच कर झरोखे में बैठ कर उसने एक बाण से आमों का झुमका बींधा। फिर उसके पीछे दूसरा बाण जोड़ा। इस तरह एक के पीछे एक बाण जोड़ कर झरोखे में बैठे हुए ही उसने आमों की लम तोड़ कर वेश्या को दे दी। फिर वह कहने लगा कि देख मेरी कला कैसी है? . ___ तब कोशा वेश्या ने सरसों का एक ढेर कर के उस पर फूल सहित एक सुई खड़ी की। फिर उस पर नृत्य किया। उसका नृत्य देख कर रथकार बहुत खुश हो कर कहने लगा कि माँग। 'माँग। मैं तुझसे सन्तुष्ट हुआ हूँ। तब कोशा ने पूछा कि तुमने कैसा तमाशा देखा कि जिसे देख कर तुम मुझ पर प्रसन्न हुए? मैने सुई की नोंक पर यह जो नृत्य बताया, ऐसी कलाएँ यदि सीखने बैठे तो हजारों सीखी जा सकती हैं। इसी तरह आपने जो आम की लूम तोड़ कर बतायी, वह भी सीखना सरल है। उसमें कुछ कठिन नहीं है। अभ्यास करने से सब कलाएँ सीखी जाने जैसी हैं। पर मेरे जैसी स्वरूपवती स्त्री पास में खड़ी थी, बरसात के दिन थे, काम को जागृत करने वाली चित्रशाला थी तथा शरीर को पुष्ट करने वाले श्रेय से श्रेय भोज्य पदार्थ मिलते थे। उन्हें खा कर वे मेरे पास रहते थे। इसी तरह मैं भी उन पर मोहित हो कर हमेशा सराग दृष्टि से बहुत प्रीतिपूर्वक उनसे विषयसेवन करने की याचना करती थी। इतना अनुकूल योग होते हुए भी एक क्षणमात्र भी जिनका मन चलायमान नहीं हुआ,उन श्री स्थूलिभद्रजी के पास जो ऐसी अद्भुत कला थी, उसे सीखना बड़ा कठिन है। उस महामुनि के आगे मैने अनेक प्रकार के हावभाव किये, पर वे महापुरुष
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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