________________ (9) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध 6. छठा व्रतकल्प कहते हैं- प्राणातिपातादिक विरमणरूप पाँच महाव्रत हैं। याने कि प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह इन पाँचों से विरत होना सो पाँच महाव्रत कहे जाते हैं। इसमें श्री ऋषभदेव तथा श्री महावीर के साधु-साध्वी को तो वैसे ज्ञान का अभाव होने से पाँचों महाव्रत व्यवहार से हैं और मध्य के बाईस जिन के समय के साधु तो परिग्रह व्रत में परिगृहीत स्त्रीभोग का पच्चक्खाण जानते हैं तथा तीसरे अदत्तादान व्रत में अपरिगृहीत स्त्रीभोग का पच्चक्खाण जानते हैं। याने कि वे स्त्री को परिग्रह रूप मान कर पाँचवें परिग्रह व्रत के साथ ही लेते है। क्योंकि जहाँ स्त्री है, वहाँ परिग्रह है। इसलिए बाईस तीर्थंकर के साधु के लिए चौथा मैथुन विरमण व्रत छोड़ कर चार महाव्रत जानना। अथवा श्री ऋषभदेव और श्री महावीर के तीर्थ में रात्रिभोजनविरमण व्रत मूल गुण में गिना जाता है। इस कारण से रात्रिभोजनविरमण व्रत के साथ गिनें, तो साधु के छह व्रत होते हैं और बाईस जिन के तीर्थ में तो रात्रिभोजनविरमण व्रत उत्तर गुण में गिनते हैं, इसलिए चार ही व्रत जानना। 7. सातवाँ ज्येष्ठ कल्प कहते हैं- ज्येष्ठ नाम बड़े का है। इसमें श्री ऋषभदेव और महावीर के साधुओं को तो बड़ी दीक्षा देने के बाद छोटाबड़ा गिना जाता है; इसलिए जिसने बड़ी दीक्षा पहले ली हो, वह बड़ा गिना जाता है। और जिसने छोटी दीक्षा पहले ली हो, पर बड़ी दीक्षा बाद में ले तो वह आगे वाले की अपेक्षा से लघु गिना जाता है। जैसे पिता-पुत्र, राजाप्रधान, सेठ-मुनीम तथा माता-पुत्री इस प्रकार अनुक्रम से दीक्षा लें और फिर उपस्थापना होने पर बड़ी दीक्षा लें, तब मुख्य रूप से तो पिता, राजा, सेठ और माता ये चारों बड़े हैं। यदि ये पढ़ाई में अधिक हो जायें, तो ये ही बड़े माने जाते हैं। नहीं तो पुत्र, प्रधान, मुनीम और पुत्री ये चारों छोटे हैं; पर यदि ये पढ़ाई में अधिक हो जायें, तो गुरु इन्हें बड़ी दीक्षा दे कर बड़ा बनाये। और बाईस तीर्थंकरों के साधुओं के लिए तो यह मर्यादा नहीं है। क्योंकि वे सब प्रवीण होते हैं। इस कारण से तुरन्त ही पढ़ लेते हैं। इसलिए वे दीक्षा के दिन से ही छोटे और बड़े गिने जाते हैं। इस कारण से उनमें जो