________________ (378) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध साधुओं को सिखा कर शय्यंभव के घर भेजा। वे शय्यभंव के घर जा कर कहने लगे कि- अहो कष्टमहोकष्टं, तत्त्वं न ज्ञायते पुनः। अर्थात् देखो! यह कष्ट कर रहा है, पर तत्त्वं नहीं जानता। यह सुनते ही तत्काल खड्ग ग्रहण कर के वह गुरु के पास आया और तलवार निकाल कर बोला कि अरे! मुझे बताओ कि तत्त्व कैसा है? तब गुरु ने विचार किया कि सिर कट जाने पर भी तत्त्व कहने में दोष नहीं है। यह सोच कर गुरु ने कहा कि अरे! तु जो यज्ञ कर रहा है, उस यज्ञ के कीलक के नीचे श्री शांतिनाथजी की प्रतिमा है। वह शान्तिकारक है। उससे शान्ति होती है, पर यज्ञ से कुछ नहीं होता। यह सुन कर घर जा. कर उसने वहाँ से श्री शांतिनाथजी की प्रतिमा निकाली। उसे देख कर उसे प्रतिबोध हुआ। फिर अपनी गर्भवती स्त्री को छोड़ कर उसने दीक्षा ली। श्री प्रभवस्वामी तीस वर्ष गृहस्थावस्था में रहे तथा उन्होंने पचपन वर्ष चारित्रपालन किया। कुल पिच्यासी वर्ष की आयु भोग कर श्री शय्यंभव को अपने पाट पर बिठा कर महावीरस्वामी से पचहत्तर वर्ष बाद वे देवलोक गये।३ श्री शय्यंभवसूरिजी और मनकमुनि का संक्षिप्त वृत्तान्त चौथे पाट पर श्री शय्यंभवसूरिजी वत्स गोत्रीय हुए। वे अपनी गर्भवती स्त्री को छोड़ कर आये थे। उसे एक पुत्र हुआ। उसका नाम मनक रखा गया। वह एक दिन पाठशाला में गया। वहाँ अन्य लड़कों के साथ पढ़ने बैठा। तब अन्य लड़कों ने ताना मारा कि हे निष्पितृक! हम तुझे जानते हैं। तेरे पिता तो हैं ही नहीं। यह बात सुन कर लड़का दुःखी हो कर अपनी माता के पास गया। उसने माता से पूछा कि मेरे पिता हैं या नहीं? तब माता ने कहा कि हे वत्स! पिता के बिना पुत्र कहाँ से हो? तेरे पिता शय्यंभव भट्ट हैं। तब लड़के ने पूछा कि वे कहाँ हैं? फिर माता ने कहा कि तेरे पिता को जैन साधु ठग कर ले गये हैं। इससे उन्होंने दीक्षा ली है। यह सुन कर जिस गाँव में शय्यंभवसूरिजी थे, वहाँ मनक भी गया।