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________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (341) चले। जहाँ भगवान खड़े रहते, वहाँ वे भूमि साफ करते, काँटे-कंकर दूर करते, पानी छिड़कते, फूल बिछाते, डांस-मशकादिक उड़ाते और त्रिकाल खड्ग धारण कर पहरा देते। इस तरह वे प्रभु की सेवा भक्ति करने लगे। एक बार धरणेन्द्र महाराज भगवान को वन्दन करने आये। उन्होंने नमि-विनमि से कहा कि भगवान तो त्यागी हैं, इसलिए तुम भरत के पास जाओ। वह तुम्हें राज्य देगा। तब उन्होंने कहा कि भगवान के अलावा हम अन्य किसी के पास नहीं माँगते। यह सुन कर धरणेन्द्र ने उनकी भक्ति से सन्तुष्ट हो कर कहा कि तुम दोनों एकमन से प्रभु की सेवा करते हो। बड़ों की चरणसेवा कभी निष्फल नहीं होती। इस कारण से मैं तुम पर प्रसन्न हुआ हूँ। तुम जो चाहो माँग लो। मैं तुम्हें दे दूंगा। तो भी उन्होंने कुछ नहीं माँगा। __तब धरणेन्द्र ने भगवान के मुख में प्रवेश कर गिनते ही सिद्ध हो जाने वाली अड़तालीस हजार विद्याएँ उन्हें सिखायीं तथा गौरी, गांधारी, रोहिणी, प्रज्ञप्तिप्रमुख सोलह देवियाँ जो उन विद्याओं की अधिष्ठायिकाएँ थीं, वे भी अर्पण की तथा वैताढ्य पर्वत की दक्षिण-उत्तर श्रेणी का राज्य दिया। फिर विद्याएँ साध कर दोनों भाइयों ने विद्याधर की ऋद्धि प्राप्त की। इसके बाद अपना सब स्वजन वर्ग ले कर रथनूपुर, चक्रवालादि पचास नगर उत्तर श्रेणी के तथा गगनवल्लभप्रमुख साठ नगर दक्षिण श्रेणी के बसा कर विद्या के बल से सर्व परिवार सहित वहाँ राज करने लगे। ____फिर उन दोनों भाइयों से धरणेन्द्र ने कहा कि हे विद्याधरो! मेरी बात सुनो। केवली भगवान, जिनप्रतिमा, चरम-शरीरी तथा प्रतिमाधर साधु इन चार की यदि तुम आशातना करोगे और इन चार को रास्ते में रख कर इनका दर्शन-वन्दन-सेवा आदि किये बिना ऐसे ही आगे बढ़ जाओगे तथा परस्त्री के साथ जबरदस्ती से विषय-भोग करोगे, तो ये तुम्हारी विद्याएँ निष्फल हो जायेंगीं। इस तरह शिक्षा दे कर और यह शिक्षा रत्नभित्ति पर लिख कर धरणेन्द्र अपने स्थान पर गये। फिर भगवान की सेवा का फल भरत को
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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