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________________ (339) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध आदि देशों का राज्य भगवान ने दिया। प्रभु की दीक्षा और तापसों की प्रवृत्ति इस तरह प्रभु ने लिखने की कला, गिनती की कला, पुरुष और स्त्रियों की कलाएँ, कारीगरों के सौ भेद, कृषीवलादि तीन कर्म लोकहित के लिए बता कर और अपने सौ पुत्रों को भिन्न भिन्न राज्य प्रदान कर, लोकान्तिक देवों की प्रार्थना मंजूर कर और वार्षिक दान दे कर तथा गोत्रजों में धन बाँट कर ग्रीष्म का पहला महीना, पहला पखवाड़ा चैत्र वदि अष्टमी के दिन पिछले प्रहर में सुदर्शना नामक पालकी में बैठ कर देव-मनुष्यसहित यावत् विनीता राजधानी में से हो कर सिद्धार्थवनउद्यान में अशोकवृक्ष के नीचे पालकी रख कर, पालकी से उतर कर सर्वालंकार अपने हाथ से उतार कर चार मुष्टि लोच कर', चौविहार छट्ठ कर के उत्तराषाढ़ानक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर उग्रकुल, भोगकुल, राजन्यकुल और क्षत्रियकुल के कच्छ-महाकच्छ प्रमुख चार हजार पुरुषों के साथ इन्द्रदत्त देवदूष्य वस्त्र ले कर गृहस्थपने का त्याग कर साधुपना स्वीकार किया। ___फिर भगवान घोर अभिग्रहधारी हो कर ग्रामानुग्राम विहार करते हुए, कठोर परीसह सहन करते हुए विचरने लगे। भगवान को यद्यपि छट्ठ तप का पारणा करना था, तथापि उस समय में साधु को दान देने की (भिक्षा देने की) विधि कोई जानता नहीं था। साधु क्या होता है? और भिक्षा क्या 2. सब तीर्थंकर पाँचमुष्टि लोच करते हैं, पर श्री ऋषभदेव प्रभु ने चार मुष्टि लोच किया। इसका कारण बताते हैं- भगवान ने जब चार मुष्टि लोच कर लिया और पाँचवीं मुष्टि उखाड़ना शेष रहा, तब हवा के कारण केश-शिखा बिखर कर चौड़ी हो गयी। इससे वह बहुत सुशोभित हो गयी। यह देख कर इन्द्र महाराज ने प्रभु से प्रार्थना की कि हे महाराज! यह केश-शिखा बहुत सुन्दर लगती है। इसलिए यह ऐसी ही रहे, तो ठीक होगा। तब भगवान ने भी शिखा को वैसा ही रहने दिया। .. ... जैसे पद्मद्रह में से निकलते समय सिंधुनदी सवा छह योजन चौड़ी है और फिर अनुक्रम से बढ़ते बढ़ते समुद्र में मिलते समय साढ़े बासठ योजन चौड़ी होती है, वैसे ही यह चोटी भी मस्तक के मध्य मूल में से निकल कर आगे आगे चौड़ाई में फैलती हुई दिखाई दी। इससे पद्मद्रह सिंधु नदी के प्रवाह की तरह शोभायमान दीखने लगी। इसे लोकभाषा में अल्लाचोटी भी कहते हैं।
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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