________________ (332) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध पुत्र ऋषभदेव की सुनन्दा के साथ इसे भी स्त्री बना देंगे। यह कह कर उसका सुमंगला नाम रखा। वह भी भगवान के साथ बड़ी होने लगी। ___ कंचनवर्ण शरीर वाले भगवान श्री ऋषभदेवजी मुणमुण बोलते, रुकरुक कर चलते, तब माता कहती कि हे पुत्र ! तु इन्द्राणी का वल्लभ है और देवों का दिया हुआ अमृत पीता है। मेरे पास तो तू रहता ही नहीं है तथा स्तनपान भी नहीं करता। फिर मैं तेरी माता हूँ, ऐसा संसार में कौन जानेगा? इत्यादि बातें करती हुई वह प्रभु को खेलाती। जब भगवान लगभग एक साल के हुए, तब इन्द्र महाराज भगवान का वंश स्थापन करने के लिए हाथ में इक्षुदंड (गन्ना) ले कर आये। उस समय भगवान नाभि कुलकर की गोद में बैठे थे। उन्होंने गोद में बैठे बैठे ही इक्षु लेने के लिए हाथ लम्बा किया। इससे इन्द्र ने जाना कि भगवान का इक्षु खाने का मन हुआ है। इसलिए इन्द्र ने भगवान के इक्ष्वाकुवंश की स्थापना की। श्री ऋषभदेवजी को देवकुरु और उत्तरकुरु क्षेत्र के कल्पवृक्षों के फल का आहार देवों ने ला कर दिया। वह आहार गृहस्थावस्था में हुआ। बचपन में तो अंगूठे में देवों द्वारा संचारित अमृत का आहार सब तीर्थंकरों के होता है। एक श्री ऋषभदेवजी के अलावा अन्य सब तीर्थंकरों के शैशव के बाद बड़े होने पर पक्व आहार होता है और संयम लेने के बाद चौबीसों तीर्थंकरों के प्रासुक आहार होता है। भगवान जब योग्य उम्र के हुए, तब सब इन्द्र और इन्द्राणी आदि अपने-अपने परिवार के साथ विवाह के लिए आये। इन्द्रादिक देवों ने वरराजा के पक्ष में हो कर श्री ऋषभदेवजी को दूल्हा बनाया और इन्द्राणीप्रमुख सब देवियों ने कन्यापक्ष में हो कर सुनन्दा तथा सुमंगला को दुल्हनें बनाया और उन्हें श्रृंगार कराया। मंडप बनाये गये। इत्यादिक विवाह संबंधी रीति कर के वर-कन्या का विवाह किया। तब से युगलिकों में विवाहप्रथा शुरु हुई, वह आज दिन तक चली आ रही है।