________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (331) प्रभु का जन्म, नाम-वंशस्थापन और विवाह श्री ऋषभनाथ अरिहन्त तीन ज्ञानसहित मरुदेवी माता की कोख में उत्पन्न हुए। यावत् मरुदेवी ने चौदह स्वप्न देखे इत्यादिक सब अधिकार श्री महावीरस्वामी की तरह कहना। परन्तु इतना विशेष है कि मरुदेवीजी ने पहले स्वप्न में वृषभ को मुख में प्रवेश करते देखा और अन्य बाईस तीर्थंकरों की माताओं ने पहले स्वप्न में हाथी को मुख में प्रवेश करते देखा तथा श्री महावीरस्वामी की माता ने पहले स्वप्न में सिंह को मुख में प्रवेश करते देखा। चौदह स्वप्नों का फल नाभिराजा ने स्वयं ही कहा, क्योंकि स्वप्नपाठक उस समय में नहीं थे। ___ उस काल में उस समय में श्री ऋषभदेव अरिहन्त का ग्रीष्म का पहला महीना पहला पखवाड़ा चैत्र वदि अष्टमी के दिन नौ महीने साढ़े सात दिनरात गर्भ में पूर्ण होने पर, उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर निराबाध रूप से जन्म हुआ। (यहाँ जन्म-महोत्सव इन्द्रादिकों ने आ कर किया इत्यादिक सब अधिकार श्री महावीरजी की तरह कहना। पर बन्दीखाने से कैदियों को छोड़ देना, तौल बढ़ाना, कुलमर्यादा करना और पूजादिक के लिए द्रव्य रखना, ये कृत्य युगलिकों के समय में गाँव-नगर आदिक के अभाव के कारण नहीं थे, इसलिए नहीं किये।) उस समय सब युगलिक थे, इसलिए प्रभु के नामस्थापन महोत्सव संबंधी व्यवहार भी नहीं चला। भगवान की जंघा में रोम का वृषभसरीखा लंछन दिखाई दिया तथा प्रभु की माता ने पहले स्वप्न में भी वृषभ देखा था, इसलिए प्रभु का नाम ऋषभ रखा। महास्वरूपवान भगवान देव-देवियों के साथ खेलते। इन्द्राणी स्वयं गोद में ले कर प्रभु को खेलाती। सुनन्दा भगवान के साथ ही युगलरूप में जन्मी थी तथा एक युगलिक के मस्तक पर तालवृक्ष का फल गिरने से वह बचपन में ही मर गया था। उसके साथ जन्मी हुई बालिका जीवित रही। अन्य युगलिकों ने उसे देखा। उन्होंने उसे नाभि कुलकर को सौंप दिया। नाभि कुलकर ने कहा कि मेरे