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________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (309) समय अमंगल क्यों बोल रही है। इतने में तोरण पर आते हुए प्रभु ने मार्ग में चौपाये प्राणियों से भरे हुए बाड़े और पक्षियों से भरे हुए पिंजरे देखे। वहाँ अनेक जलचर जीव पानी के अभाव में उछलकूद कर रहे थे तथा थलचरों में हरिण, सांबर, रोज, भेड़ें, मेढ़े, खरगोशप्रमुख अनेक जाति के जीव तथा खेचरों में कुर्कुट, तीतर, मोर, सारस-जोड़े, राजहंस, कोयल, बगुले, तोते इत्यादिक जीव जो वहाँ इकट्ठे किये हुए थे, उनकी पुकार प्रभु ने सुनी। इतने में एक हरिण और हरिणी गरदन से गरदन मिला कर विलाप करते हुए प्रभु से विनती करने लगे कि हे प्रभो! हमें इस कष्ट से छुड़ाओ। हमने कोई अपराध नहीं किया है। हमने मुख में तृण रखा है। हे अनाथनाथ ! प्रभो ! बचाओ! बचाओ। __यह देख कर नेमिकुमार ने महावत से पूछा कि इन जीवों को क्यों रोक रखा है? तब महावत ने कहा कि आपके विवाह के गौरव-भोज के लिए ये रखे हुए हैं। यह सुन कर प्रभु बोले कि धिक् ! धिक ! यह विवाह अब बस हो गया। नरक का मूलरूप यह विवाह मुझे नहीं चाहिये। फिर दीनदयाल प्रभु सब जीवों को छुड़ा कर हाथी पर से उतर कर रथ पर सवार हो कर वापस मुड़ गये। ... तब श्री समुद्रविजय राजा, शिवादेवी रानी, कृष्ण वासुदेव और बलभद्रप्रमुख छप्पन्न कुलकोड़ि यादव रथ रोकने के लिए आड़े आये, पर प्रभु किसी के रोके न रुके और न मुड़े। उन्होंने यह कहा कि ये सब जीव बंधन में बंधे हुए महादुःख देखते हैं, वैसे मैं बँधाऊँगा नहीं और संसार में भी रहूँगा नहीं। हाथी बाघ से पकड़ा न जाये। जाय रे जाय यादवराय।। यह बात सुन कर राजीमती धरती पर गिर पड़ी। फिर क्षणभर में सचेत हो कर बोली कि हा ! हा ! प्रभो ! यह हर्ष के स्थान पर कैसा विषवाद फैलाया ! ऐसा कहती हुई हार तोड़ती, वलय मोड़ती, आभरण तोड़ती, वस्त्र मसलती, किंकिणीकलाप छोड़ती, मस्तक फोड़ती, कुन्तलकलाप बिखेरती, भूमि पर लोटती, सांजन बाष्पजल से भूमि सींचती, सखियों का
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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