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________________ (310) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध अपमान करती हुई, जैसे अल्प जल में मछली तड़पती है, वैसे विकल होती हुई, विरह व्याकुल वह क्षण में रोये, क्षण में देखे, क्षण में आक्रन्द करे, क्षण में उच्छ्वास छोड़े, क्षण में घबराये, क्षण में बूझे, क्षण में जूझे, क्षण में न सूझे, ऐसी स्थिति में पहुँच गयी। फिर वह अनेक उपालंभपूर्वक वचन कहने लगी कि- हा यादवकुल दिनकर ! हा करुणासागर ! हे शरणागतवत्सल ! मुझ जैसी अबला को ऐसे अकेला छोड़ना आप को उचित नहीं है। यदि आप जगत के सब जीवों के प्रति दयाभाव रखते हैं, तो मुझ पर दया क्यों नहीं लाते? ए मेरे निष्ठुर निर्लज्ज हृदय ! प्रभु तुझे छोड़ गये हैं, तो अब तू शतखंड़ क्यों नहीं होता? अब तू क्या सुख पायेगा? राजीमती का ऐसा विलाप सुन कर सखीवर्ग, सज्जनवर्ग और मातापितादिक कहने लगे कि यह तो निःस्पृही है। इस पर क्या राग रखना? तू इतना विलाप क्यों कर रही है? तेरा विवाह तो हुआ ही नहीं है। इसलिए यदि यह काला-कुरूप वर चला गया, तो क्या बिगड़ गया? तेरे लिए अन्य रूपवान वर मिल जायेगा। इसलिए अब अन्य उत्तम वर का वरण करना। इस पर राजीमती ने कहा कि ये वचन सुनने योग्य नहीं हैं। तुम सब ऐसे वचन मुझसे मत कहो। मुझे तो श्री नेमिनाथ के चरणों की ही शरण है। काली तो कस्तूरी भी होती है। वह गुणवान है, इसलिए उसका मूल्य बहुत है। और जो सफेद लहसुन होती है, वह निर्गुणी है, इसलिए उसका कोई भाव भी नहीं पूछता। इन प्रभु ने मेरा हाथ भले ही न पकड़ा हो, पर मैं इनका हाथ मेरे सिर पर रखवाऊँगी। इन प्रभु के नाम से मैं सौभाग्यवती हूँ। इसलिए यदि इन्होंने मेरे साथ विवाह नहीं किया, तो मैं इनकी शिष्या हो कर इनके पीछे जाऊँगी। अन्य किसी वर का मैं वरण नहीं करूँगी। इतना कह कर फिर वह गिरनार से कहने लगी कि हे गिरनार ! मुझे छोड़ कर नेमजी यदि तुम्हारे पास आयें, तो तुम उन्हें प्रवेश मत देना। उन्हें उपालंभ देना कि तुम अबला को दुःखी कर के क्यों आये? इत्यादिक विकल्प करती हुई, शील पालती हुई वह अपने पिता के घर
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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