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________________ (298) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध इच्छा रखता हो तो चुपचाप यहाँ से चला जा। नहीं तो तुझे अभी फल मिलेगा। यह सुन कर सोम सामन्त डर कर जरासंध के पास चला गया। फिर भयभीत यादवों ने कोष्टिक निमित्तज्ञ से पूछा कि हमारी जीत कहाँ होगी? तब उसने कहा कि आपके कुल में राम और कृष्ण महापुरुष हैं तथा नेमीश्वर भगवान तीर्थंकर हैं, इसलिए आपका कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं है। परन्तु इस समय आप सब कृष्ण को राजा बना कर पश्चिम दिशा में जाइये। मार्ग में जहाँ सत्यभामा पुत्रयुगल को जन्म दे, वहाँ आप बस जाइये। वहीं आपकी वृद्धि होगी। यहाँ रहना आपके लिए हितावह नहीं है। - यह सुन कर समुद्रविजयप्रमुख ग्यारह कुल कोटि यादव शौरीपुर से और उग्रसेनप्रमुख सात कुल कोटि यादव मथुरा से इकट्ठे हो कर अपने अपने परिवार सहित सौराष्ट्र देश की तरफ चले। सोम सामन्त ने राजगृह नगर में जा कर जरासंध को सब समाचार कह सुनाये। तब जरासंध भी अपनी सेना सज्जित कर यादवों पर आक्रमण करने के लिए तैयार हुआ। उस समय जरासंध के पुत्र कालकुमार ने कहा कि यदि मेरा नाम काल है, तो मैं सब यादवों का काल बन कर उन्हें मार डालूँगा। यदि वे आकाश में ऊँचे जायेंगे, तो सीढ़ी लगा कर आकाश में जा कर उनका नाश करूँगा। यदि वे जमीन में प्रवेश करेंगे, तो जमीन खोद कर उसमें प्रवेश कर मैं उन्हें मार डालूँगा। यदि वे जल में प्रवेश करेंगे, तो मैं भी जल में प्रवेश कर उन्हें मार डालूँगा तथा यदि वे आग में प्रवेश करेंगे, तो मैं भी आग में प्रवेश कर उनका नाश करूँगा। ऐसी प्रतिज्ञा कर के पाँच सौ भाइयों सहित पिता को प्रणाम कर के कालकुमार ने यादवों पर आक्रमण करने के लिए कूच किया। जाते समय जीवयशा से भी कहा कि मैं मेरे बहनोई की हत्या का बदला यादवों से लूँ, तो ही मेरा नाम काल जानना। जीवयशा ने भी आशीर्वाद दिया और कहा कि तेरी मृत्यु हो तो भले हो, पर यादवों का नाश अवश्य करना। इस तरह जैसा होना था, वैसा ही जीवयशा के मुख से वचन भी निकला। कालकुमार पाँच सौ भाइयों सहित बहुत शीघ्रता से रवाना हुआ। चलते चलते वह यादवों से एक दिन के मुकाम जितने अन्तर पर पहुँचा और वहाँ ठहर गया। इतने में श्री नेमीश्वर तीर्थंकर, कृष्ण वासुदेव, राम बलदेव तथा अन्य भी तद्भव मोक्षगामी ऐसे अनेक लोग यादवों के परिवार में थे, उनके पुण्ययोग से यादवों की कुलदेवी वहाँ खिंची आयी। उसने यादवों और कालकुमार के मुकाम के मध्य एक
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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