SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 332
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (299) पर्वत बना दिया। उस पर्वत पर मार्ग में एक चिता जलायी और एक बुढ़िया का रूप बना कर वह स्वयं चिता के पास रुदन करते बैठी। कालकुमार ने उसके पास जा कर रोने का कारण पूछा। तब कुलदेवी ने छलपूर्वक रोते हुए कहा कि हे पुत्र ! कालकुमार के भय से यादवों के सब परिवार इस चिता में प्रवेश कर गये हैं। कोई भी यादव शेष नहीं बचा है। मैं उनकी कुलदेवी हूँ। अब मेरी पूजा कौन करेगा? इस कारण से मुझे बहुत दुःख होने से मैं रुदन कर रही हूँ। यह बात सुन कर अपने मुख से की हुई प्रतिज्ञा का पालन करने के लिए अनेक सामन्त तथा अनेक भाइयों सहित तलवार निकाल कर कालकुमार ने यादवों को मारने के लिए अग्नि में प्रवेश किया और वह जल कर भस्म हो गया। फिर सुबह के समय जरासंध के लश्कर के लोग देवमाया जान कर वापस फिरे और राजगृह जा कर जरासंध को सब वृत्तान्त सुनाया। द्वारिका नगरी में यादवों का राज्य और श्री शंखेश्वरतीर्थ की स्थापना ____ अब सब यादव मौज करते हुए प्रसन्न मन से पश्चिम समुद्र के तट पर पहुंचे। वहाँ सत्यभामा ने भ्रमर नामक पुत्र युगल को जन्म दिया। उस निमित्तज्ञ के कहे अनुसार सब यादव वहाँ ठहर गये। फिर श्रीकृष्ण महाराज ने अट्ठम तप कर के सुस्थित नामक लवणाधिप देव की आराधना की। इससे वह देव प्रत्यक्ष हाजिर हुआ। उसके पास श्रीकृष्ण ने रहने के लिए स्थान माँगा। तब उस देव ने कहा कि इन्द्र महाराज से पूछ कर तुम्हें स्थान दूंगा। यह कह कर सुस्थितदेव ने इन्द्र महाराज के पास जा कर सब बात कही। - तब इन्द्र ने धनद नामक भंडारी को भेजा। उसने बारह योजन लम्बी और नौ योजन चौड़ी द्वारिका नगरी का निर्माण किया। उसके चारों ओर अठारह हाथ ऊँचा, बारह हाथ मोटा तथा नौ हाथ पृथ्वी में गहरा ऐसा सोने का किला बनाया। उसे रत्न के कंगूरों से सुशोभित किया। फिर उस किले के चारों ओर गहरा खन्दक बनाया। इस तरह बाड़ी, बाग-बगीचे सहित सुन्दर किला बना कर धनद ने उस द्वारिकानगरी में श्रीकृष्ण को बसने की आज्ञा दी। - उस नगरी में एक सात खंडवाला मकान कल्पवृक्षों की बाडीसहित श्रीकृष्णजी के निवास के लिए बनाया। उस मकान के एक तरफ समुद्रविजयादिक दस भाइयों के लिए मकान बनाये तथा दूसरी तरफ उग्रसेन के लिए मकान बनाया। उसके पास अन्य सब भाइयों के लिए मकान बनाये। वे सब मकान तीन दिन में धन-धान्य, वस्त्र-अलंकार प्रमुख उत्तम वस्तुओं से भर कर श्रीकृष्ण के स्वाधीन कर के धनद
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy