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________________ (286) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध मेरे पास लायेगा, उसके साथ मैं मेरी पुत्री जीवयशा का विवाह करूँगा और वह जो नगर पसन्द करेगा, उसका राज्य भी दूंगा। यह पत्र पढ़ कर समुद्रविजयजी अपनी सेना तैयार कर सिंह पल्लीपति पर आक्रमण करने के लिए तैयार हुए। इतने में वसुदेवकुमार ने आ कर उन्हें रोका और कंस को साथ ले कर स्वयं सैन्य सहित रवाना हुआ। वहाँ जा कर कंस को आगेवान कर के उसके साथ युद्ध किया। कंस ने सिंह राजा को पकड़ कर बाँध कर वसुदेवजी के अधीन किया। ___ वसुदेवजी जब आक्रमण करने के लिए गये थे, तब समुद्रविजयजी ने कोष्टक निमित्तज्ञ से पूछा था कि वसुदेवजी और जीवयशा की जोड़ी मिलती है या नहीं? तब निमित्तज्ञ ने कहा था कि यह जीवयशा विवाह के बाद श्वसुरकुल और अपना पितृकुल इन दोनों कुलों का क्षय करने वाली है। इसलिए आप विचारपूर्वक काम करें। मेरे वचन में जरा भी संदेह न रखें। यह सुन कर उस निमित्तज्ञ को बिदाई दे कर बिदा किया। ___निमित्तज्ञ की बात से वे चिन्तातुर हो कर सोचने लगे कि वसुदेवजी जीत गये, तो जरासंध अपनी पुत्री वसुदेवजी को देगा, पर वह कन्या तो दोनों कुलों का क्षय करने वाली है। तो अब हम इसका क्या उपाय करें? इस तरह वे चिन्तातुर हो कर बैठे थे, तब वसुदेवजी भी सिंह राजा को बाँध कर समुद्रविजयजी के पास ले आये। उन्होंने समुद्रविजयजी को चिन्तातुर देख कर पूछा कि आप किस चिन्ता में बैठे हैं? तब वसुदेवजी को एकान्त में ले जा कर समुद्रविजयजी ने कहा कि जीवयशा दोनों कुलों का क्षय करने वाली है। तब वसुदेवजी ने कहा कि सिंह राजा को मैंने नहीं बाँधा। उसे कंस ने बाँधा है। ___ यह बात सुन कर समुद्रविजयजी सोच में पड़ गये कि इस वणिकपुत्र में इतना बल नहीं हो सकता। इसलिए उसकी हकीकत पूछने के लिए उन्होंने सुभद्र वणिक को बुलाया। उसने सब वृत्तान्त सच सच बता दिया। फिर उस वणिक के पास से मुद्रिका मँगवा कर उन्होंने कंस को दी। फिर सिंह राजा सहित कंस को राजगृही में जरासंध के पास भेजा। जरासंध ने कंस के साथ अपनी पुत्री जीवयशा का विवाह किया। फिर कंस ने मथुरा का राज्य माँगा, तब जरासंध ने उसे अपना सबल सैन्य दिया। सैन्य ले कर कंस मथुरा गया। उसने अपने पिता उग्रसेन को जीवित पकड़ कर काष्ठ के पिंजरे में डाल दिया और स्वयं मथुरा का राज करने लगा। अपने
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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