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________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (285) परन्तु दूसरी बार भी पारणा के दिन भोजन के लिए बुलाना भूल गया। इसी तरह तीसरे महीने में भी आमंत्रण दे कर भोजन के लिए बुलाना भूल गया। इससे तापस को राजा पर क्रोध आया। उसने सोचा कि यह दुष्ट राजा मुझे आमंत्रण दे जाता है, पर भोजन नहीं कराता। इसलिए यदि मेरे तप का प्रभाव हो, तो मैं इसे भवान्तर में दुःख देने वाला होऊँ। ऐसा नियाणा कर के वहाँ से मरने के बाद उग्रसेन राजा की धारिणी रानी की कोख में आ कर उत्पन्न हुआ। उसके प्रभाव से तीसरे महीने में रानी को राजा का कलेजा खाने का दोहद हुआ। इससे वह शरीर से दुर्बल हो गयी। राजा के बार बार पूछने पर उसने दोहद से संबंधित जो बात थी, वह बता दी। फिर राजा ने प्रधान की बुद्धि से वह दोहद पूर्ण किया। रानी ने भी गर्भ गिराने के बहुत उपाय किये, पर गर्भ नहीं गिरा। अंत में नौ महीने पूर्ण होने पर पुत्र का जन्म हुआ। उसके जन्मते ही रानी ने उसे काँसे की पेटी में रख कर और साथ में नामांकित मुद्रिका रख कर वह पेटी यमुना नदी में बहा दी। तैरती हुई वह पेटी मथुरा से शौरपुर आयी। उस समय घी-तेल बेचने वाला सुभद्र वणिक यमुना नदी में स्नान करने आया। उसने वह पेटी नदी में से बाहर निकाली। खोल कर देखा, तो उसमें बालक दिखाई दिया। फिर उस वणिक ने मुद्रिकासहित उस बालक को उठा लिया और गुप्तरूप से घर ला कर अपनी पत्नी को सौंप दिया। उसने लोगों से कहा कि मेरी पत्नी के गूढगर्भ पुत्र हुआ है। उसने उस बालक का नाम कंस रखा। अनुक्रम से वह बालक बड़ा हुआ, तब बहुत उधम करने लगा। वह लोगों के बालकों के साथ मारपीट करता। तब लोग आ कर सुभद्र से नित्य शिकायत करते। तब उस वणिक ने विचार किया कि मैं तो सामान्य मनुष्य हूँ और यह राजपुत्र है। इसलिए मेरे घर यह कैसे रह सकता है? ऐसा जान कर उस वणिक ने वह बालक वसुदेवकुमार को सौंप दिया। फिर कंस भी वसुदेवजी का सेवक बन कर रहा। वसुदेवजी भी कंस पर बहुत कृपादृष्टि रखने लगे। - इसी अवसर पर वसुराजा के वंश में बृहद्रथ राजा हुआ। उसका पुत्र जरासंध प्रतिवासुदेव तीन खंडों का भोक्ता था। वह राजगृही नगरी में राज करता था। सब यादव भी उसी की आज्ञा का पालन करते थे। उस जरासंघ राजा ने समुद्रविजयजी को दूत के साथ एक पत्र लिख भेजा कि वैताढ्य पर्वत के पास रहने वाला सिंह नामक पल्लीपति जो सिंहपुर नगर का राजा है, उसे जीवित पकड़ कर बाँध कर जो
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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