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________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (287) पिता काष्ठपिंजरं में पड़े पड़े दुःख भोगते हैं, यह देख कर कंस का छोटा भाई अतिमुक्तक संसार से विरक्त हो कर दीक्षा ले कर चला गया। वसुदेवजी का पूर्वभव वसुदेवकुमार ने पूर्वभव में स्त्रीवल्लभ कर्म उपार्जन किया था। उस पूर्वभव की बात कहते हैं- वसुदेवजी का जीव पिछले भव में किसी गाँव में नन्दीषेण नामक कुलपुत्र था। उसकी बाल्यावस्था में ही उसके माता-पिता की मृत्यु हो गई थी। इसलिए वह मामा के घर बड़ा हुआ। अनुक्रम से उसने युवावस्था प्राप्त की। पर उसका कुदर्शन, काला रूप, बिल्ली के जैसी छोटी आँखें, गणेश के जैसा बड़ा पेट, हाथी के जैसे बड़े दाँत, ऊँट के जैसे बड़े होंठ, बन्दर के जैसे कान, चपटी नाक, तिकोना ललाट आदि बातों के कारण ऐसा कुरूप जान कर उसे कोई कन्या नहीं देता था। सब स्त्रियाँ उसकी निन्दा करती थीं। इससे चिन्तातुर हो कर उसने मामा के घर कामकाज करना छोड़ दिया। . तब मामा ने कहा कि मेरे सात पुत्रियाँ हैं। उनमें से एक का विवाह तेरे साथ कर दूँगा। तू चिन्ता मत कर। फिर मामा ने अपनी पुत्रियों से पूछा, तब उन सातों ने कहा कि हम इस दाँतले के साथ कभी विवाह नहीं करेंगी। यह सुन कर नन्दीषण मरने के लिए किसी पर्वत पर चढ़ कर वहाँ से कूदने लगा। इतने में एक मुनिराज ने उसे रोका और कहा कि अरे भोले ! इस प्रकार मरन से तेरा दुःख नहीं मिटेगा। फिर प्रतिबोध प्राप्त कर उसने चारित्र ग्रहण किया और साधुओं की वैयावच्च करने का अभिग्रह धारण किया। वह स्वयं मासखमण की तपस्या करता और साधुओं की वैयावच्च भी करता। . ____एक दिन इन्द्रराज ने अपनी सभा में नन्दीषेण की वैयावच्च करने के बारे में बहुत प्रशंसा की और कहा कि उसके जैसा वैयावच्च करने वाला अन्य कोई नहीं है। इस बात पर अविश्वास कर के एक देव वहाँ आया। उसने अतिसारग्रस्त एक साधु का रूप बना कर उसे गाँव के बाहर बिठाया। फिर अन्य एक साधु का रूप बना कर उसे नन्दीषण के पास भेजा। नन्दीषेण उस समय पारणा करने की तैयारी में था। उस कृत्रिम साधु ने आ कर नन्दीषेण से कहा कि अरे ! अतिसार का रोगी एक साधु गाँव के बाहर पड़ा है। उसे वैयावच्च की आवश्यकता है। __यह सुन कर नन्दीषेण पारणा करना छोड़ कर तुरन्त उस साधु की शरीरशुद्धि के लिए प्रासुक पानी लेने के लिए गाँव में घूमने लगा। उस देव ने अपनी देवमाया से सब पानी अप्रासुक कर डाला। इससे नन्दीषेण को लेने योग्य पानी कहीं
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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