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________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (269) भद्रकपरिणामी, धर्मात्मा तथा श्रावकधर्म का पालन करने वाला था। उसकी स्त्री वसुंधरा अत्यन्त स्वरूपवान तथा चपल स्वभाव वाली थी। एक दिन कमठ ने मरुभूति की स्त्री को देख कर उसके रूप से मोहित हो कर भोग करने के लिए उसे दो-तीन बार बुलाया। तब वह स्त्री भी कमठ पर राग करने लगी। - एक दिन कमठ ने प्रधान वस्त्राभूषण दे कर वसुंधरा को अपने वश में कर के आपस में प्रेम निर्माण किया और वह उसके साथ भोगकर्म करने लगा। यह बात कमठ की स्त्री वरुणा के जानने में आयी। तब उसने अपने भरतार से कहा कि तुम जो यह अकृत्य कर रहे हो, सो अच्छा नहीं है। यदि देवर को मालूम हो गया तो लोगों में निन्दा होगी। अपनी स्त्री का यह उपदेश कमठ ने नहीं माना। इसलिए नाराज हो कर वरुणा ने कमठ के अनाचार की बात मरुभूति को बता दी। तब मरुभूति ने विचार किया कि अपनी आँखों से देखे बिना एकाएक स्त्रियों की बात नहीं माननी चाहिये। यह सोच कर किसी गाँव जाने का बहाना कर के वह बाहर चला गया। फिर तीर्थवासी संन्यासी का वेश बना कर पुनः घर आ कर रहा। उस रात उसने दुराचारी कमठ और अपनी स्त्री, इन दोनों को क्रीड़ा करते देखा। फिर सुबह के समय उसने कमठ के दुराचार की बात अरविन्द राजा को बतायी। राजा ने कमठ को पकड़ कर चोर की तरह बुरा हाल कर के उसे गधे पर बिठा कर नगर में घुमाया। इस तरह उसकी विडंबना कर के उसे नगर से बाहर निकाल दिया और मरुभूति को पुरोहित बनाया। - फिर कमठ ने दुःखी हो कर किसी तापस से दीक्षा ले कर बारह वर्ष तक तपस्या करते हुए जगह-जगह भ्रमण किया। अन्त में पोतनपुर आ कर नगर के बाहर एक पर्वत पर तपस्या करने लगा। वह गाँव में जाता नहीं था। गाँव के सब लोग उसे तपस्वी जान कर भोजनादिक देते थे और उसकी प्रशंसा करते थे। यह बात सुन कर मरुभूति ने सोचा कि यह मेरा बड़ा भाई है और मैंने इसे दुःख दिया है तथा इसी कारण से यह तापस हुआ है। इसलिए मुझे वहाँ जा कर अपने अपराध की क्षमायाचना करनी
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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