________________ (266) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध ____ भगवान श्री महावीरस्वामी मोक्ष जाने के बाद नौ सौ साल बीत गये और दसवीं सदी के अस्सी वर्ष हुए तब याने वीर निर्वाण से नौ सौ अस्सीवें वर्ष में पुस्तकलेखन हुआ। वाचनान्तर से नौ सौ तिरानबे में पुस्तकलेखन हुआ, ऐसा दीखता है। निर्वाण में इन्द्रादिकों का कर्तव्य भगवान का निर्वाण हुआ तब इन्द्रादिक के आसन चलायमान हुए। भगवान का पाँचवाँ निर्वाण कल्याणक जान कर सब इन्द्र मिल कर निर्वाणस्थल पर आये। चमरेन्द्रादिकों ने बावनाचन्दन से भगवान की चिता रची। अग्निकुमार देवों ने अग्नि जलायी। वायुकुमार देवों ने हवा चलायी और भगवान का मांस सब सुखा दिया। फिर मेघकुमार देवों ने जलवर्षा की। शरीर की राख क्षीरसमुद्र में डाली। भगवान की ऊपर की दाढ़ें सौधर्मेन्द्र ने और निचली दाढ़ें चमरेन्द्र ने लीं। उन दाढ़ों को रत्नमय करंडक में पूजने के लिए रखा। यह अधिकार श्री जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति में विस्तार से कहा है। वहाँ से जान लेना। पुस्तकलेखन कब और कैसे हुआ ? श्री वीरनिर्वाण के बाद वल्लभीपुर नगर में देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण प्रमुख सर्व श्री संघ ने मिल कर सिद्धान्त को पुस्तकारूढ़ किया। याने कि पूर्व में तो सब सूत्र आचार्यप्रमुख को मुखपाठ थे। फिर बारह वर्ष का दुष्काल पड़ा। इस कारण से कई साधुओं की मृत्यु हो गई। अतः बहुत से सूत्रपाठ जो साधुओं को कंठस्थ थे, उनका विच्छेद हो गया। फिर जब सुकाल हुआ तब सूत्रों का विनाश होते देख कर संघ ने इकट्ठे हो कर जिस साधु को जितना पाठ स्मरण में था, वह सब ताड़पत्र पर लिखवा लिया और उसे पुस्तकारूढ़ किया तथा कई प्रतों में नौ सौ अस्सीवें वर्ष में सब सिद्धान्त पुस्तक में लिखा जाने लगा और वह नौ सौ तिरानबेवें वर्ष में सम्पूर्ण लिखा गया, ऐसा लिखा है। कारण