________________ (248) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध इसलिए घट नहीं है, ऐसा नहीं कहा जाता। वैसे ही आत्मा पद जो है, वह भी संयोगरहित पद है। इसलिए उसकी नास्ति नहीं कही जा सकती। याने कि उसका निषेध नहीं किया जा सकता। संसार में जो जो पदार्थ शुद्धपदवाच्य हैं, वे असत् नहीं हैं अर्थात् सत् हैं। और शास्त्र में भी आत्मा का कथन किया गया है। तो अब क्या समझना? जीव है या नहीं? क्योंकि एक सूत्र 'जीव है' कहता है और दूसरा सूत्र ‘जीव नहीं है' कहता है। ऐसा जान कर ही हे इन्द्रभूति ! तुम्हें सन्देह हुआ है। पर यह सन्देह गलत है, व्यर्थ है, क्योंकि जीव को नास्ति (नहीं है) कहने वाला जो 'विज्ञानघन' पद है, उसका अर्थ तुम विपरीत करते हो। इस कारण से पूर्वापर विरोध के कारण तुम्हें शंका हो रही है। __इसलिए उस पद का अर्थ इस प्रकार करना योग्य है कि- विज्ञान याने ज्ञान और दर्शन। इन दोनों की अभिन्नता के कारण विज्ञानघन नाम जीव का है। वह 'एतेभ्यो भूतेभ्यः' - याने घटादिक जो भूत हैं, उन्हें देख कर उत्पन्न होता है। याने कि ज्ञाता जो विज्ञानघन है, उसे घटादिक जो ज्ञेय हैं, उन्हें देख कर ज्ञान उत्पन्न होता है। तब वह जानता है कि घट जो है सो यही है। यह ज्ञान 'समुत्थाय' - याने उत्पन्न हो कर 'तान्येव' याने वही ज्ञान उस ज्ञेय का उपयोग चले जाने से उसमें ही 'अनुविनश्यति' - याने नष्ट हो जाता है। फिर उस घटना-बोध की पर्याय विनष्ट होती है। ___'न प्रेत्य संज्ञास्ति इति।'- याने जो पूर्व की ज्ञानसंज्ञा थी, वह नहीं रहती। याने कि जो घट देखा, उस घट का ज्ञान घट में ही रहा, पर घट का उपयोग पट में नहीं होता। परमार्थ यह है कि इन्द्रभूति को विज्ञानघन की श्रुति के अर्थ में यह सन्देह था कि जीव भूत में से उत्पन्न होता है और भूत में ही नष्ट होता है। परलोक नहीं है। भगवान ने उस श्रुति का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा कि जो उपयोग घट का था, वह घट में ही रहा, पर पट में नहीं। यदि ऐसा न मानें तो'यथाकारी तथा भवति' - जैसा करे वैसा होवे, 'साधुकारी साधुर्भवति' - भला करने वाला भला होता है, 'पापकारी पापी भवति' - पाप करने वाला