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________________ . श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (247) नहीं है। तो फिर क्या है? तो कहते हैं कि ज्ञान है। यह ज्ञान ही इन भूतों से उत्पन्न होता है। जैसे दीपक उत्पन्न हो कर जब विनष्ट होता है, तब उसका प्रकाश भी चला जाता है। वैसे ही इन भूतों का नाश होने पर जीव का भी नाश हो जाता है। प्रयोग भी है कि- ज्ञानं नान्यभवगं भौतिकत्वात् दीपवत्।। ज्ञान है सो भूतों से उत्पन्न होता है, इसलिए अन्य (दूसरे) भव में जाने वाला नहीं है। जैसे दीपक है, वैसे ही यह भी है। इसलिए परभव में जाने वाला जीव नहीं है और हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि पाँच भूत तो देखने में आते हैं, पर जीव देखने में नहीं आता। जब मनुष्य मर जाता है, तब उसे जला कर राख कर देते हैं। वहाँ अस्थिप्रमुख तो देखने में आते हैं, पर जीव का चिह्न तो कुछ नहीं दीखता। वेद के इस पद के अर्थ से तुम्हें ऐसा लगता है कि जीव नहीं है। और तुम्हारे मन में ऐसा भी ऊँचा है कि वेद में ऐसा भी पद है स वै अयमात्मा ज्ञानमयो मनोमयो वाङ्मयश्चक्षुर्मय, आकाशमयो वायुमयस्तेजोमयः आपोमयः पृथिवीमयः क्रोधमयः अक्रोधमयः हर्षमयः शोकमयः धर्ममयः अधर्ममयः इत्यादिक। - 'स' - वह 'अयं' - यह 'आत्मा' - जीव जो है वह 'ज्ञानमयः' - याने ज्ञानवान, मनवाला, वचनवाला, नेत्रवान और इसी प्रकार आकाशमय, वायुमय, तेजमय, जलमय, पृथिवीमय तथा क्रोधमय, अक्रोधमय, हर्षमय, शोकमय, धर्ममय, अधर्ममय इत्यादिक वेद के पद देखने से तुम्हें यह संदेह हुआ है कि जीव है या नहीं? हे इन्द्रभूति ! योगीश्वर द्वारा यह आत्मा प्रत्यक्ष जाना हुआ है। याने कि ज्ञानी को यह आत्मा प्रत्यक्ष है। जैसे कि परमाणु अन्य सामान्य जीवों को दिखाई नहीं देते, पर ज्ञानवान उन्हें जानता है। अनुमान से भी जीव की सत्ता सिद्ध होती है। वह अनुमान इस प्रकार है- अस्त्यात्माशुद्धपदवाच्यत्वाद् घटवत्। आत्मा है शुद्धपद की वाच्यता से अर्थात् शुद्धपद के कथन से। इसलिए जैसे घट पद जो है, वह असंयोगी पद है।
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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