________________ (246) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध इन्द्रभूति ऐसा विचार कर रहे थे कि इतने में भगवान बोले कि हे इन्द्रभूति ! तुम्हारे मन में यह सन्देह है कि जीव है या नहीं? जीव का उत्थापन करने वाले और जीव की स्थापना करने वाले वेदपदों को जान कर तुम सन्देह में पड़े हो। तुम पदों का अर्थ विपरीत करते हो, इसलिए तुम्हें संदेह है। वेद के पदों का पूर्वापर विरोधरहित अर्थ मैं तुम्हें बताता हूँ। उसे सुनो। यह कह कर स्वयं भगवान स्वमुख से वेद के पदों का उच्चारण करने लगे। उनकी ध्वनि कैसी थी? सो कहते हैं समुद्रो मथ्यमानः किं, गङ्गापूरोऽथवा किमु? आदिब्रह्मध्वनिः किं वा, वीर वेदध्वनिर्बभौ।।१।। भगवान की ध्वनि सुन कर लोग विचार करते थे कि समुद्रमंथन किये जाते समय जो ध्वनि होती है, क्या वैसी ही ध्वनि हो रही है? अथवा गंगानदी में बाढ़ आने पर जो ध्वनि होती है, क्या वैसी ही ध्वनि हो रही है? अथवा क्या आदिब्रह्म की ध्वनि हो रही है? ऐसी ध्वनि वीर भगवान के मुख से निकली। भगवान ने कहा कि वेद में जीवसत्तानिषेधक पद ऐसे हैंविज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति। न प्रेत्यसंज्ञास्तीति जीवाभावश्रुतिः।।। हे गौतम ! वेद के इन पदों का अर्थ तुमने ऐसा जाना है कि 'विज्ञानघन' - याने विज्ञानसमूह जो चेतनपिंड है, ‘स एव' - वही चेतनपिंड 'एतेभ्यो भूतेभ्यः' - पृथ्वी, अप, तेज, वायु और आकाश इन पाँच भूतों से 'समुत्थाय' - उत्पन्न हो कर 'तान्येवानुविनश्यति' - उन भूतों का नाश होने के बाद नष्ट होता है (याने कि उन भूतों का नाश होने के बाद उस विज्ञानघन चेतन का भी नाश होता है।) इसलिए 'न प्रेत्यसंज्ञास्ति' - परलोक नहीं है। अर्थात् इन पृथिव्यादिक पाँच भूतों से जीव उत्पन्न होता है और ये पृथिव्यादिक पाँच भूत जब नष्ट हो जाते हैं, तब जीव का भी नाश हो जाता है। इसलिए जीव मर कर परलोक में जाता है, यह कहना वृथा है। क्योंकि परलोक में जाये, ऐसा कोई जीव