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________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (249) पापी होता है, 'पुण्यं पुण्येन कर्मणा भवति' - पुण्य कर्म करने से पुण्य होता है, 'पापः पापेन भवति' - पाप करने से पाप होता है। तथा 'द द द' इन तीन दकारों का अर्थ दया, दान और दम है। 'इति दकारत्रयं यो वेत्ति स जीवः' - इन तीन दकारों को जो जानता है, वह जीव है। ये यजुर्वेदादिक के पद कैसे मिलें? ____ इसलिए अनुमान करते हैं कि- 'विद्यमान भोक्तृकमिदं शरीरं भोग्यत्वादोदनादिवत्' - विद्यमान है भोक्ता जिसका ऐसा यह शरीर है। इस सूत्र से शरीर को भोगनेवाला जीव है और वह विद्यमान है, यह सिद्ध हो गया। इससे यह शरीर भोगने योग्य है, इसलिए इसको भोगने वाला भी है। जैसे आहार भोग्य है, तो उसका भोक्ता भी है, वैसे ही इस शरीर को भोगने वाला जीव है। इस अनुमान से जीव है। इसलिए हे इन्द्रभूति ! जैसे 'क्षीरे घृतं'- दूध में घृत, 'तिले तैलं' - तिल में तेल, 'काष्ठे अग्निः' - काष्ठ में अग्नि, 'सौरभ्यं कुसुमे' - फूल में सुगंध और 'चन्द्रकान्तौ सुधा" - चन्द्र की कान्ति में अमृत 'यद्वत्' - जैसे है, वैसे ही 'आत्माङ्गतः प्रतिक्षेत्रं भिन्नः' - आत्मा शरीर में है। प्रत्येक शरीरक्षेत्र में भिन्न भिन्न है। वह 'अपौद्गलिकः' - पुद्गलरहित, 'पारिणामिकः' - पारिणामिक, कर्ता और भोक्ता है। ‘स जीवः' - वह जीव है। 'अन्यथा जीवं विना दया किं विषया स्यात्' - इस प्रकार यदि जीव न मानें तो जीवदया किसमें हो सकती है? 'तस्मादस्ति जीवः' - इसलिए हे इन्द्रभूति! जीव है। इत्यादिक वेदपद के अर्थ सुन कर, संशय दूर कर और मद छोड़ कर तथा वैराग्य प्राप्त कर श्री वीरप्रभु को तीन प्रदक्षिणा दे कर इन्द्रभूति उनके पाँव पड़े और शुद्ध भाव से पाँच सौ छात्रों सहित उन्होंने दीक्षा ग्रहण की। उनका गौतम गोत्र था, इसलिए वे गौतम नाम से प्रसिद्ध हुए। भगवान के मुख से 'उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा' - यह त्रिपदी ग्रहण कर उन्होंने द्वादशांगी की रचना की। कहा भी है कि श्री वीरमुखतो वेदपदार्थमवगत्य च।
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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