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________________ (234) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध तो जैसे अस्पृश्यों का मोहल्ला अलग कर मनुष्य अन्य रास्ते से चलता है, वैसे ही देव भी विप्रों का यागमंडप छोड़ कर श्री वीर के समवसरण में जाने लगे। वे देव आपस में यह कहते जा रहे थे कि जल्दी उतावल से जा कर सर्वज्ञदेव को वन्दन करें। देवों के मुख से ऐसी वाणी सुन कर इन्द्रभूति मन में अमर्ष ला कर अन्य ब्राह्मणों से कहने लगा कि देखो भाइयो! यह आश्चर्य की बात है कि मनुष्य तो अनजान है, मूर्ख है, इसलिए भूल सकता है, पर ये देव ज्ञानवान हो कर भी भूल रहे हैं। इसलिए हमें आश्चर्य होता है कि इतना विशाल यज्ञमंडप छोड़ कर न जाने ये देव कहाँ जा रहे हैं? मुझे छोड़ कर और कौन ऐसा सर्वज्ञ है, जिसके पास ये जाते हैं? तब उन ब्राह्मणों में से एक ब्राह्मण ने कहा कि हे स्वामिन् ! इस नगर के बाहर कोई महाढोंगी ऐन्द्रजालिक आया है। वह अपना इन्द्रजाल फैला कर स्वयं ज्ञानी बन बैठा है। वह अन्य लोगों से कहता है कि मैं दूसरों के मन की सब बातें जानता हूँ। इस प्रकार बहुत लोगों को उसने भरमाया है। इसलिए देव भी वहाँ देखने के लिए जा ___यह सुनते ही इन्द्रभूति को अत्यन्त मानसहित क्रोध चढ़ा। फिर वह कहने लगा कि ऐसा कौन है जो मेरे होते हुए ज्ञान का अभिमान धारण कर यहाँ आये? क्या वह मुझे नहीं जानता? इसलिए देखो भाइयो! ये देव जो भूले हैं, वे भी उसके जैसे ही नासमझ होंगे। जैसा वह ज्ञानी है, वैसे ही ये देव भी जानना। कारण कि अहो सुराः कथं भ्रान्त्या, तीर्थांश्च इव वायसाः। कमलाकरवद् भेकाः, मक्षिका चन्दनं यथा।।१।। आश्चर्य है कि ये देव हो कर भी भ्रान्ति से जैसे कौए तीर्थ छोड़ कर चले जाते हैं, वैसे ही ये भी यज्ञ छोड़ कर जा रहे हैं। इसलिए ये देव कौए जैसे हैं अथवा मेंढक जैसे समुद्र छोड़ कर चला जाता है, वैसे ही ये भी समुद्र जैसा. यज्ञ छोड़ कर जा रहे हैं। इसलिए ये देव मेंढक जैसे हैं अथवा जैसे मक्षिका चन्दन को छोड़ जाती है, वैसे ही ये देव भी यज्ञरूप चन्दन को
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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