________________ (230) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध देव सेवा करते हैं, ऐसे वे हुए। वे तीनों कालों से संबंधित मन-वचन-काया के योग में वर्तमान सब जीवों के सब भाव जानने वाले हुए। प्रथम देशना की निष्फलता और रात्रिविहार भगवान को केवलज्ञान उत्पन्न होते ही चौसठ इन्द्रों के आसन चलायमान हुए। तब चौसठ इन्द्र दीक्षामहोत्सव की तरह ही केवलज्ञान का महोत्सव करने के लिए वहाँ पहुँच गये। महोत्सव कर के जूंभिका गाँव के बाहर उन्होंने समवसरण की रचना की। वहाँ भगवान ने क्षणेक बार देशना दी, पर वह देशना निष्फल गयी। किसी ने सामायिकादिक व्रत भी ग्रहण नहीं किये तथा देव सब अव्रती होते हैं, इस कारण से नवकारसीप्रमुख पच्चक्खाणं भी किसी ने नहीं किया। तीर्थंकर की देशना कभी खाली नहीं जाती, पर वीरप्रभु की देशना खाली गयी। इसलिए ‘इदमप्याश्चर्यम्' याने यह भी आश्चर्य जानना। भगवान ने वहाँ लाभ का अभाव जान कर और आगे लाभ होने का अवसर जान कर उसी समय वहाँ से विहार किया। कहा गया है कि तत्रादिश्य क्षणं धर्म, देवोद्योते जगद्गुरुः। लाभाभावान्मध्यमायां, महसेनवनेऽगमत्।।१।। जहाँ केवलज्ञान उत्पन्न हुआ, वहाँ तीर्थंकर का आचार पालने के लिए एक क्षणमात्र देशना दे कर देवों के उद्योत में जगत के गुरु श्री महावीरस्वामी लाभ का अभाव जान कर वहाँ से बारह योजन दूर मध्यमा पावानगरी के महसेन नामक वन में गये। रात्रि में विहार करने की मर्यादा नहीं है, पर भगवान ने विहार किया। यह कल्पातीतत्व बताने के लिए जानना। परन्तु छद्मस्थ साधु को तो तीर्थंकर भगवान ने जिस प्रकार आज्ञा दी है, उसी प्रकार से चलना चाहिये। यदि वह विपरीत चलता है, तो प्रायश्चित्त पाता है तथा रात का विहार जीव की जयणा के लिए वर्जित है, क्योंकि रात में कोई भी जीव दिखाई नहीं देता। ऊपर के श्लोक में 'देवोद्योते' ऐसा पाठ कहा है, सो व्यवहार मात्र से