________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (229) चातुर्मास-संख्या और प्रभु को केवलज्ञान छद्मस्थावस्था में पहला अस्थिग्राम में, दूसरा नालंदापाडा में, तीसरा चंपानगरी में, चौथा पृष्ठचंपा में, पाँचवा और छठा भद्रिका में, सातवाँ आलंभिका में, आठवाँ राजगृही में, नौवाँ वज्रभूमि में, दसवाँ श्रावस्ती में, ग्यारहवाँ विशाला में और बारहवाँ चंपानगरी में इस तरह भगवान के बारह चौमासे हुए। तेरहवें वर्ष के जारी रहते गरमी का दूसरा महीना चौथा पक्ष याने वैशाख सुदि 10 के दिन, पिछला एक प्रहर दिन शेष रहते सुव्रत नामक दिन में विजय मुहूर्त में, मुंभिकगाँब के बाहर ऋजुवालुका नदी के किनारे, वैयावर्त्त नामक चैत्य से न तो अधिक दूर और न ही अधिक नजदीक ऐसे स्थान पर, श्यामाक गाथापति के खेत में शालिवृक्ष के नीचे गोदुह याने गाय दोहने बैठने के आसन में उकडूं बैठ कर आतापना लेते हुए, पानीरहित बेला की तपस्या में आत्मा का चिन्तन करते हुए उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में चन्द्रमा का योग होने पर, ध्यान में वर्तमान अर्थात् शुक्लध्यान ध्याते हुए भगवान को जिसके समान अन्य कोई ज्ञान नहीं है अर्थात् अनन्य, व्याघातरहित, आवरण याने आच्छादनरहित, सब द्रव्य-पर्यायों को ग्रहण करने वाला और पूर्णिमा के सम्पूर्ण चन्द्रमा की तरह केवल याने एकअकेला याने जिसे अन्य कोई सहायक नहीं ऐसा केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न हुआ। - फिर भगवान श्री महावीरस्वामी अर्हन् याने पूजनीय हुए, राग-द्वेषरहित हुए, केवली हुए, सब जानने वाले और सब देखने वाले हुए। सब देव, मनुष्य, असुरलोक के पर्यायों को वे जानने और देखने लगे। सर्वलोक, सब जीवों की आगति, गति, भवान्तर में जाना, आयुष्य, देवलोकादि से च्यवन, देवलोकादि में जा कर उत्पन्न होना, जीव जो मन में सोचते हैं वह, खाते हैं वह, चोरी प्रमुख करते हैं वह, मैथुनादिक सेवन करते हैं वह, प्रकट कर्म करते हैं वह, चोरी-छिपे कर्म करते-कराते हैं वह, इत्यादि सब बातों में से कोई भी बात जिनसे छिपी हुई नहीं रहती, ऐसे वे ज्ञानी हुए। जिनकी जघन्य से भी एक करोड़