________________ (202) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध की उत्पत्ति हुई थी। इस कारण से मार्ग में गुरु के पैर के नीचे एक छोटी सी मेंढकी आने से दब कर मर गयी। तब शिष्य ने कहा कि महाराज ! आपके पाँव के नीचे मेंढकी दब कर मर गयी है। यह सुन कर गुरु ने कहा कि मेंढकियाँ तो बहुत-सी मरी पड़ी हैं, इसलिए किसी दूसरे के पाँव तले आ कर मरी होगी। इस पर शिष्य मौन रहा। फिर गोचरी आलोवते समय शिष्य ने कहा कि महाराज ! मेंढकी का मिच्छा मि दुक्कडं दीजिये। यह सुन कर गुरु को गुस्सा आ गया। उसने शिष्य से कहा कि अरे ! वह मेंढकी तो पहले से ही मरी हुई थी। मैंने उसे नहीं मारा। शिष्य ने बहुत कहा, पर गुरु ने नहीं माना। तब शिष्य ने सोचा कि शाम को प्रतिक्रमण में आलोयणा लेंगे। गुरु ने भी शाम को प्रतिक्रमण में सब आलोयणा ली, पर मेंढकी की आलोयणा नहीं ली। तब शिष्य ने कहा कि महाराज ! मेंढकी की आलोयणा लीजिये। उस समय भी गुरु ने क्रोधपूर्वक वैसा ही जवाब दिया। पुनः रात को संथारे के समय कहा कि महाराज! मेंढकी की आलोयणा लीजिये। यह सुनते ही गुरु को बहुत गुस्सा आया। इस कारण से हाथ में रजोहरण ले कर शिष्य को मारने दौड़ा। रात का समय था। शिष्य भाग गया। गुरु उसके पीछे भागा और उपाश्रय के खंभे से टकरा गया। इससे गुरु का सिर फूट गया और वह मर गया। दूसरे भव में वह ज्योतिषी देव हुआ। वहाँ से च्यव कर वह चंडकौशिक नामक तापस हुआ। उसके पाँच सौ शिष्य थे, पर वह बड़ा क्रोधी था। एक दिन राजकुमारों को बगीचे में फूल चुनते देख कर हाथ में परशु ले कर वह उन्हें मारने दौड़ा। रास्ते में पैर फिसल जाने से वह अंधकूप में गिर गया। उसे परशु लग जाने से आर्तध्यान में उसकी मृत्यु हो गयी। फिर वह उसी आश्रम में चौथे भव में चंडकौशिक सर्प बना। वह जिस किसी को देखता, उसे जला कर भस्म कर देता। अनेक तापसों को उसने जला डाला। कई तापस भाग गये। लोगों ने भी उस मार्ग से जाना छोड़ दिया। वह एक कोस (तीन किलोमीटर से कुछ अधिक) प्रमाण भूमि में रहे हुए जीवमात्र को जला डालता था। वहाँ किसी को रहने नहीं देता था। उस साँप के बिल पर भगवान काउस्सग्ग ध्यान में खड़े रहे। यह देख कर साँप ने क्रोध कर के प्रभु को डंक मारा, तब प्रभु के पैर से दूध सरीखा खून और मांस निकला। यह देख कर साँप ने सोचा कि मैं जिसके सामने देखता हूँ, वह भी जल कर भस्म हो जाता है और इसे डंक मारा, तो भी