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________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (177) अकेला ही जाता है तथा अकेला ही अपने शुभाशुभ कर्मों का फल भोगता है। इस तरह संसार में कोई किसी का सगा नहीं है तो अब किस-किस का शोक करें और किस-किस के साथ प्रतिबंध रखें? ____ इस पर नन्दीवर्द्धन ने कहा कि हे भाई! यह सब मैं भी जानता हूँ। पर क्या करूँ? मेरे मोहनीय कर्म का बंध बहुत दृढ़ है, इसलिए मैं तुम्हारा विरह सहन नहीं कर सकता। मेरा तुमसे यह अनुरोध है कि तुम दो वर्ष तक और घर में रहो। यही ठीक होगा। उत्तम पुरुष बड़े करुणाशील होते हैं। दुःखियों का दुःख देख कर वे द्रवित हो जाते हैं। बड़े भाई का यह कथन सुन कर भगवान ने कहा कि हे भाई! मैं दो साल घर में रहँगा, पर सब आहार-पानी प्रासुक लूँगा। मेरे लिए आरंभ कर के कुछ भी मत बनाना। तब बड़े भाई ने कहा कि हम तुम्हारे लिए कुछ भी नहीं बनायेंगे। तुम सुखपूर्वक रहो। तब भगवान पुनः दो वर्ष गृहवास में रहे। जब भगवान का जन्म हुआ था, तब लोगों में यह प्रसिद्ध हो गया था कि माता ने चौदह स्वप्न देखे हैं, इसलिए पुत्र चक्रवर्ती होगा। ऐसा जान कर ही श्रेणिक और चंडप्रद्योतन राजाओं ने अपने कुमारों को बाल-ठाकुर की सेवा करने के लिए भेजा था। उन सबने भगवान को ऐसे घोर अनुष्ठान करते देख कर सोचा कि ये चक्रवर्ती तो नहीं लगते। ये तो संयमग्राही तीर्थंकर हैं। यह जान कर वे सब अपने अपने घर गये। भगवान भी उसी स्थिति में दो वर्ष गृहस्थावास में और रहे। उन्होंने सब सचित्त वस्तुओं का त्याग किया और ब्रह्मचर्य-पालन किया, पर जिस समय दीक्षा ली, उस समय सचित्त जल से स्नान किया। क्योंकि यह मर्यादा है कि दीक्षा ग्रहण के समय का स्नान उष्ण जल से करना तीर्थंकर के लिए नहीं होता। इसी कारण से प्रतिमा को भी उष्णजल नहीं चढ़ाते। भगवान का दिया हुआ वार्षिक दान जब एक वर्ष शेष रहा, तब नव लोकान्तिक देव प्रभु के सम्मुख आये। यद्यपि भगवान स्वयंसंबुद्ध हैं, तो भी उन देवों की ऐसी ही मर्यादा होने से
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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