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________________ (178) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध 1. सारस्वत, 2. आदित्य, 3. वह्नि, 4. वरुण, 5. गर्दतोय, 6. तुषित, 7. अव्याबाध, 8. अग्नि और 9. अरिष्ट इन नौ देवों ने प्रभु के पास आ कर कहा कि जय-जयवन्त हों हे समृद्धिमान ! हे कल्याणवान ! आपका भला हो। हे क्षत्रियों में वृषभ समान ! आपकी जय हो। बोध कीजिये। बोध कीजिये। बूझिये। बूझिये। हे भगवन् ! हे लोकनाथ ! सारे संसार के जीवों के लिए हितकारक प्रवृत्ति कीजिये। हे भगवन् ! आप धर्मतीर्थ का प्रवर्तन कीजिये। वह धर्मतीर्थ सब लोकों में हितकारक, सुखकारक और मोक्षकारक होगा। इतना कह कर उन्होंने जय-जयकार किया। श्रमण भगवान श्री महावीरस्वामी को मनुष्ययोग्य गृहस्थधर्म याने गृहस्थ के व्यवहार से पहले भी अनुपम उपयोग याने अप्रतिपाति अवधिज्ञान और अवधिदर्शन था। उस अनुत्तर अवधिज्ञान और अवधिदर्शन से अपनी दीक्षा का अवसर जान कर रौप्य, सुवर्ण, धन, राज्य, देश, वाहन, कोठार, भंडार, अन्तःपुर, देशवासी लोग, धन, कण, धान्य, मणिरत्न, मोती, दक्षिणावर्त्त शंख, शिला, प्रवाल, लालरत्नादिक जो कुछ स्वयं के पास था और हाजिर था, उन सबका त्याग कर के अर्थात् उन पर से मंन हटा कर, सर्व रूपादिक छोड़ कर, जो चाँदी प्रमुख धरती में गाड़े हुए थे, उन्हें बाहर निकाल कर वह सब अपने गोत्रियों में बाँट दिया। फिर वार्षिक दान दिया। वार्षिक दान का अधिकार इस प्रकार है भगवान अपने दीक्षा दिन से एक वर्ष पहले वार्षिक दान देना शुरु करते हैं। सूर्योदय से भोजन के समय तक प्रतिदिन प्रभात का सवा प्रहर दिन बीतने तक नित्य एक करोड़ आठ लाख सुवर्णमुद्राएँ भगवान दान में देते हैं। गाँव में ऐसी उदघोषणा की जाती है कि जिसे जो वस्तु चाहिये, वह जब उसकी माँग करे, तब भगवान उसे वह वस्तु देते हैं। वह सब शक्रेन्द्र के आदेश से देवता पूर्ण करते हैं। इस प्रकार एक वर्ष में तीन सौ करोड़ याने तीन अब्ज अट्ठासी करोड़ अस्सी लाख सुवर्णमुद्राएँ भगवान दान में देते हैं। एक सुवर्णमुद्रा का वजन अस्सी रत्ती होता है। उस पर तीर्थंकर और उनके माता-पिता का नाम होता है। बारह सौ सुवर्णमुद्राओं का एक मण
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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