________________ (136) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध वाग्भट्टादिक ग्रंथों में कहा है कि गर्भिणी स्त्री यदि वातकारक खाये याने वायुज पदार्थ खाये, तो गर्भ कुबड़ा होता है, अंधा होता है और वामन होता है। वह पित्तकारक पदार्थ खाये तो गर्भ गिर जाता है तथा उसका अंग पीला हो जाता है। वह कफकारक पदार्थ खाये, तो गर्भ पांडुरोगी (श्वेत वर्ण वाला) होता है अथवा चितकबरा होता है। गर्भवती स्त्री यदि नमक अधिक खाये और आँख में काजल अधिक डाले, तो पुत्र नेत्रहीन अंधा होता है। वह अधिक ठंडा आहार करे, तो वायु अधिक होती है। वह अधिक गरम आहार करे, तो पुत्र कमजोर होता है। वह मैथुनसेवन करे, तो गर्भ की मृत्यु होती है। वह घोड़ेप्रमुख पर सवारी करे, अधिक दौड़े, अधिक चले, चलते-चलते गिरे, पेट मसलावे, नाली प्रमुख कूदे, ऊँची-नीची सोये, मंजिलप्रमुख पर चढ़े-उतरे, उकडूं बैठे, उपवास करे, वमन करे, विरेचन जुलाब ले आदि कार्य करे, तो गर्भ गिर जाता है। वह अधिक रुदन करे, तो लड़का चीपड़ी आँखों वाला होता है। वह अधिक गीत गाये, तो लड़का बहरा होता है। वह अधिक बातें करे, तो वाचाल होता है। वह अधिक हँसे, तो लड़का मसखरा होता है। अधिक गालियाँ बोले, तो लड़का लंपट होता है। अब किस-किस ऋतु में क्या-क्या पथ्यकारक है? सो कहते हैं- वर्षा ऋतु में नमक गुणकारक है। शरद ऋतु में जल गुणकारक है। शिशिर ऋतु में खट्टा रस गुणकारक है। वसन्त ऋतु में घी, गुड़ इत्यादिक गुणकारक हैं। - कोई प्रौढ़ सखी कहती है कि बहन ! धीरज से बोल। धीरज से चल। क्रोध मत कर। पथ्य का पालन कर। घाघरा और चोली अधिक कसकर मत बाँध। अधिक मत हँस। छत पर मत सो, क्योंकि छत पर सोने से पुत्र बाँडा होता है। अधिक नीचे मत चल। अधिक ऊँची मत चढ़। दिन में सोने से लड़का अधिक ऊँघने वाला होता है तथा आलसी बनता है। नाखून काटने से पुत्र कुशील-दुराचारी होता है। अधिक दौड़ने से पुत्र चंचल होता है। अधिक हँसने से होंठ, दाँत, तालु और जीभ ये काले हो जाते हैं। पंखा अधिक झलने से वह उन्मत्त होता है। अतिशोक करने से वह उच्चाटिया होता है। अधिक मूर्च्छित रहने से वह निर्बुद्ध होता है। अतिभय रखने से पुत्र डरपोक होता है। अतिपरिश्रम करने से वह कमजोर और आलसी होता है। ऐसी सब बातें बड़ी स्त्री जैसे कहती है, उसके अनुसार त्रिशलारानी अपने गर्भ का प्रतिपालन करने लगी।