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________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (135) हर्षित हो कर बोली कि मेरा गर्भहरण नहीं हुआ है, गला नहीं है। मेरा गर्भ पहले हिलता नहीं था, पर अब हिल रहा है। यह कह कर हर्षित हो कर वह आनन्द मनाने लगी। गर्भ में ही प्रभु का अभिग्रह अब श्रमण भगवंत श्री महावीरस्वामी ने विचार किया कि मेरे मातापिता अभी से ही ऐसा मोह करते हैं, तो जब मैं दीक्षा लूँगा तब तो इन्हें बहुत दुःख होगा। इसलिए अब मेरे माता-पिता जीयें तब तक दीक्षा लेना मुझे उचित नहीं है। ऐसा अभिग्रह जब साढ़े छह महीने गर्भ को हो गये थे, तब भगवान ने लिया। . गर्भप्रतिपालन ____ फिर त्रिशला माता ने स्नान किया, देवपूजा कर के मंगल किया और अलंकारादि धारण किये। गर्भप्रतिपालन ठीक तरह से करने के लिए वह अतिशीतल आहार, अतिउष्ण आहार तथा बहुत तीखा सूंठ-मिरच आदि का आहार लेती नहीं थी। अधिक कड़वा निंबादि, अधिक कसैला हरडे आदि, अधिक खट्टा इमलीप्रमुख, अधिक मीठा गुड़ आदि, अधिक स्निग्ध घृतप्रमुख, अधिक लूखा चनाप्रमुख, अधिक सूखा पूडला-पापडीप्रमुख तथा अधिक हरा फल-फूल का भोजन वह करती नहीं थी। वह जो भोजन करती थी, वह विधिसहित करती थी। वस्त्र भी विधि से पहनती थी। वह गंधादि विधि से ग्रहण करती थी तथा मालाप्रमुख भी विधि से पहनती थी। गर्भ की रक्षा के लिए वह अपने को रोग लगने नहीं देती थी। वह शोक करती नहीं थी, मोह करती नहीं थी और भय भी रखती नहीं थी। जो-जो काम गर्भ के लिए हितकारक थे, वे काम वह करती थी। वह मानोपेत पथ्य आहार करती हुई गर्भ का पोषण करती थी। जिस काल में जो चीज सुपाच्य और गुणकारक होती, उसका वह उपयोग करती थी। वह सुकोमल शय्या में शयन करती थी और सुखासन पर बैठती थी। वह ऊँची-नीची फिरती नहीं थी।
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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