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________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (125) दृष्टान्त दिया है, परन्तु वह तो बाद में हुआ है और यह बात पूर्व की है। इसलिए दृष्टान्त मिलता नहीं है, पर उपनय में मिलती बात है तथा दृष्टान्त एकदेशीय होता है। यद्यपि अन्तर्वाच्यादिकों में यह दृष्टान्त नहीं है, फिर भी लिखते हैं। गांगातेली की हास्य-विनोद-जनक कथा सिद्धार्थ राजा कहते हैं कि सुसिद्धि का कथन सब जगह सिद्ध ही होता है, जैसा गांगातेली के लिए हुआ। जैसे कि कोई एक विद्यार्थी दक्षिण देश के प्रतिष्ठानपुर नगर में किसी भट्ट के पास तीस वर्ष तक विद्याध्ययन कर अहंकारी हो गया। उसने सिर पर अंकश धारण किया तथा विद्या की अधिकता के कारण अपना पेट फट न जाये, इसलिए गर्व से उसने अपने पेट पर पट्टा बाँध लिया। यदि कोई वादी वाद करते समय भाग कर आकाश में चला जाये, तो उसे सीढ़ी पर चढ़ कर नीचे गिरा दूं, इस अभिमान से उसने एक सीढ़ी अपने पास रखी। यदि वादी भाग कर पाताल में प्रवेश करे, तो उसे धरती खोद कर बाहर निकाल लूँ, इस अभिमान से उसने एक कुदाली भी अपने पास रखी। सीढ़ी तथा कुदाली उसने एक नौकर के सिर पर रखी। इसी प्रकार यदि कोई वादी वाद में हार जाये, तो उसके मुख में तिनका डाल दूं, इस विचार से एक नौकर के सिर पर उसने घास का पूला रखा। इस आडम्बर के साथ चलते हुए दक्षिण, गुजरात, मारवाड़, मेवाड़ आदि देशों के पंडितों को वाद में जीत कर सरस्वती-कंठाभरण आदि बिरुदावली बुलवाते हुए सब गाँवों के पंडितों को जीतते हुए अनुक्रम से वह मालवदेश में जा पहुँचा। वहाँ उज्जयिनी के भोज राजा की सभा में पाँच सौ पंडित हैं, यह सुन कर उन पंडितों के साथ वाद करने के लिए वह उज्जयिनी गया। राजा ने उसका बड़े ठाट-बाट से नगर-प्रवेश कराया और सुन्दर महल में उसे ठहराया। फिर उस पंडित ने राजसभा में जा कर पंडितों के साथ वाद कर के राजा के समक्ष कालिदास, माघ आदि पाँच सौ पंडितों को जीत लिया। तब राजा ने सोचा कि यह तो बड़ा आश्चर्य हुआ कि एक परदेसी भट्ट ने यहाँ आ कर मेरे सब पंडितों को हरा दिया। इससे मेरे पंडितों की मानहानि हुई। यह सोच कर चिन्तातुर हो कर वह नगरभ्रमण के लिए गया। रास्ते में उसने एक आँख वाले गांगातेली को देखा। वह घानी पर बैठा था और घानी में से तेल निकाल कर घड़े में भर रहा था। वह तेल की एक बूंद भी नीचे गिरने नहीं देता था। ऐसे काने तेली को देख कर राजा ने सोचा कि यह काना बड़ा बुद्धिमान है तथा अक्लमंद भी
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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