________________ दोधकवृत्तिः 39 - 333 जे महु दिण्णा दिअहडा, दइएं पवसंतेण / ताण गणंतिए अंगुलि उ, जज्जरिआउ नहेण ||8|' . जे महुत्ति ये मम दत्ता दिवसा दयितेन प्रवसता चलता . सता, तान् दिवसान् गणयन्त्या ममाङ गुल्यो जर्जरिता नखेन / दयितोक्तदिनानां वारंवार्मङ गुलोपर्वभिर्गुणना दित्यर्थः // 8 // 334 सायरु उप्परि तणु धरइ, तलि घल्लइ रयणाई / सामि सुभिच्चुवि परिहरइ, सम्माणेइ खलाई // 9 // ' 'सायरु' सागरः तृणानि उपरि धरति, तले क्षिपति रत्नानि / स्वामी सुभृत्यमपि परिहरति, सान्मानयति खलान् दुर्जनान् / / 6 / / 335 गुणहि न संपइ कित्ति पर, फल लिहिआ भुंजन्ति / केसरि न लहइ बोड्डिअवि, गय लक्खेहि घेप्पन्ति / / 10 // __ 'गुणहिं गणैर्न संपदः, परं कोतिर्भवतु / जीवाः फलानि लिखितानि, ललाटपट्टिकायामिति गम्यते, भुनन्ति / दृष्टान्तयति-केसरी कपदिकामपि न लभते, गजास्तु लक्षगुह्यन्ते / / 10 // 336 वच्छहे गृहइ फैलई जणु. कडु-पल्लव वज्जेइ / .तोवि महदुमु सुअणु जिवं, ते उच्छंगि धरेइं // 11 // 1. हत्थेसु अं पाएसु अ अंगुलिगणणाइ अइगआ दिअहा / एण्हि उण केण गणिज्जउ त्ति भणिउ रुअइ मुद्धा / / गाथासप्तशत्याम् 4-7 1. एक्कइ वन्न वसंतडा, एव्वड अंतर काइ / सिंध कवड्डी ना. लहइ, गयवर लक्ख विकाइ // राजस्थानी दोहा