________________ 170 न्यायसंग्रहः आत्मनेपदमनित्यम् // 9 // विपि व्यञ्जनकार्यमनित्यम् // 15 // स्थानिवद्भावपुंवभावैकशेषद्वन्द्वैकत्वदीर्घत्वान्यनित्यानि // 96 // अनित्यो णिज्चुरादीनाम् // 9 // णिलोपोऽप्यनित्यः // 98 // णिच्सन्नियोगे एव चुरादीनामदन्तता 199 / / धातवोऽनेकार्थाः // 110 // गत्यार्था ज्ञानार्थाः // 101 // | नाम्नां व्युत्पत्तिरव्यवस्थिता // 102 // उणादयो अव्युत्पन्नानि नामानि // 103 // शुद्धधातूनामकृत्रिम रूपम् // 104 // क्विबन्ता धातुत्वं नोज्झन्ति शब्दत्वं च प्रतिपद्यन्ते // 105 // उभयस्थाननिष्पन्नोऽन्यतरव्यपदेशभाक् // 106 // अवयवे कृतं लिङ्ग समुदायमपि विशिनष्टि चेत्तं समुदाय सोडवयवो न व्यभिचरति // 107 // येन धातुना युक्ताः प्रादयस्त प्रत्येवोपमर्मसंज्ञाः // 108 // यत्रोपसर्गत्वं न सम्भवति तत्रोपसर्गशब्देन प्रादयो लक्ष्यन्ते न तु सम्भवत्युपसर्गत्वे // 109 // शीलादिप्रत्ययेनु नासरूपोत्सर्गविधिः // 110 // " . त्यादिष्वन्योऽन्य नासरूपोत्सर्गविधिः // 111 //