________________ 208 श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनम् परिवीय // 78 // यजादि-वचेः किति / 4 / 179 // 'यजादेर्वचेश्च सस्वरान्तस्था किति परे वृत्' स्यात् / ईजुः, ऊयुः, ऊचुः / कितीति किम् ? यक्षीष्ट // 79 // स्वपेर्यङ्-डे च / 4 / 1 / 80 // 'स्वपेर्यङि डे किति च परे सस्वरान्तस्था य्वृत्' स्यात् / सोषुप्यते, असूषुपत सुषुप्सति // 8 // - ज्या-व्यधः क्डिति / 4 / 1181 // 'ज्या व्यधोः सस्वरान्तस्था किति ङिति स्वृत्' स्यात् / जीयात्, जिनाति विध्यात्, विध्यति // 81 // व्यचोऽनसि / 4 / 1182 // 'व्यचेः सस्वरान्तस्था अस्वर्जे क्ङिति य्वृत्' स्यात् / विचति / अनसीति किम् ? उरुव्यचाः // 82 // . - वशेरयङि / 4 / 1183 // 'वशेः सस्वरान्तस्था अयङि छिति वृत्' स्यात् / उष्टः, उशन्ति / अयङीति किम् ? वावश्यते // 8 // ग्रह-वस्व-भ्रस्ज-प्रच्छः / 4 / 1184 // “एषां सस्वरान्तस्था क्छिति य्वृत्' स्यात् / जगृहुः, गृह्णाति; वृक्णः, वृश्चति; भृष्टः, भृज्जति; पृष्टः, पृच्छा // 84 // ___व्ये-स्यमोर्यङि / 4 / 1185 // 'व्येग्-स्यमोः सस्वरान्तस्था यङि य्वृत्' स्यात् / वेवीयते, सेसिमीति // 85 // चायः की / 4 / 1 / 86 //